Wednesday, April 23, 2014

मेरे माथे पर छपा एक विज्ञापन।

इस शख्स का नाम विनीत,
उम्र तीस,
रंग गेहुँआ,
कद दरम्याना,
चेहरा गोल
है,
बाँयी पलक पर
,
चोट का निशान,
असमय बाल झड़ने से,
सर पर बना खाली स्थान,
और बदन बेडोल है।
शक्ल से बेतरतीब,
और बेवजह बद्तमीज़,
लगने वाला ये शख्स,
पिछले कई... हफ्तों से,
हकीकत से लापता है।
और अभी इसकी गुमशुदाई का,
इसे खुद भी कहाँ पता है।
आखिऱी बार इसे,
ख़यालों के मुहाने पर पाया गया था,
और उस रोज़ भी,
इसे समझाया गया था,
पर ये ठहरा बेवकूफ, अड़ गया,
फिज़ूल चक्करों में पड़ गया,
और पल-पुसकर जब किसी काम लायक ये हो गया,
उसके बाद ये खो गया।

इसे ढूँढने वाले का ये इनाम है,
कि इसे ढूँढने वाले को, ये इनाम है।
इसे ढूँढें,
और सबसे पहले,
तो इसे, इसके खोने की इक्तला दें,
फिर हक से,
हर मुद्दे पर इसे सलाह दें।
इससे इसके बारे में,
जो मर्जी व्यक्तिगत सवाल पूछें,
इसे सार्वजनिक संपत्ति समझें,
और बेझिझक पूरा इतिहास पूछें।

इसकी संपत्ति का ब्यौरा लें,
इसकी आमदनी का हिसाब लगायें,
इसके खर्चे जोड़ें,
फिर इसे छोड़ें,
और बाकी सबसे इसके बारे में मशवरा करें,
पंचायत जमा लें,
और मिलज़ुल कर इस पर फैसला करें।
इसे अपना समझें,
और अपनी समझायें,
और इसकी किसी बात में ना आयें।
इसकी पढ़ाई-लिखाई सब नकार दें,
इसकी सोच को दुत्कार दें,
ज़रूरत पड़े, तो दो चार थप्पड़ ही क्यों ना मार दें।
इसकी क्या ख़ता,
और इसे क्या पता,
इसे आपकी नसीहतों की कितनी सख़्त ज़रूरत है।
आप ऐवरेस्ट छूकर आये हैं,
चाँद पर आपका आना जाना है।
हर विषय पर आपने पी एच डी की है,
सर्व प्रकार से आप क्वालिफाईड हैं,
आपने दुनिया देखी है।
इसका क्या है,
जैसे तैसे तीस का हो गया,
और तीस का होते ही तो खो गया।
इसकी ज़िंदगी की बागडोर,
बस अब, आप अपने हाथ में ले लें,
और इससे पहले कि ये कुछ कर गुज़रे,
इसे भी अपने ही साथ में ले लें।
इतिहास गवाह है,
इतिहास, आपने बनाया है,
ज़िंदगी भर आपने इतिहास को,
और इतिहास ने आपको दोहराया है।
इसलिये, इसके जीवन को भी आप,
अपने जैसा ही खास कर दें,
इसे जहाँ कहीँ देखें,
इसे अपनी सलाह दें,
और इसे भी अपने जैसा ही इतिहास कर दें। 

Thursday, January 30, 2014

घुटने भर की, टेक बहुत हूँ, बेबी बस मैं, एक बहुत हूँ।

मैं उठती हूँ, छैः बजते हैं।
छैः बजते हैं,
सूरज आता।
सूरज आता,
सुबह फूटती।
सुबह फूटती,
तो माँ उठती।
मैं ना उठती,
तो माँ उठती ?

भरी रात, जी भर सोती हूँ,
छैः घंटे तक,
चुप होती हूँ।
उठती हूँ,
उठते रोती हूँ,
कब की जो
भूखी होती हूँ।
जो ना रोती,
भूखी सोती,
नींद की अपनी,
नाव डुबाकर,
देता कोई दूध,
उठाकर।

दिन छोटे हैं, काम बड़े हैं,
सब के सब,
निफराम पड़े हैं,
मुझको फुर्सत,
ज़रा नहीं है।
कुछ भी अब तक,
करा नहीं है।
घूम-घूम ज़रा,
घर तो देखूँ,
उठक-पटक,
भर-नज़र तो देखूँ,
इत्ती लंबी,
रात गई है,
बेफिक्रों के,
साथ गई है।
छोटी हूँ,
है बड़ी फिकर पर,
रात गया कुछ,
इधर-उधर गर,
और कौन जो,
ध्यान करेगा,
ये सब क्या,
मेहमान करेगा।

पकड़-पकड़ गर बाल ना खींचूँ,
कान ना ऐंठूँ, नाक ना भींचूँ।
विजयी-विश्व नींद का हारा,
उठ जाता ये कुनबा सारा
?

बड़े बड़े ये,
रोज़ लड़ें ये,
सुबह जो मैं, अख़बार ना फाड़ूँ,
हर पन्ना, हर बार ना फाड़ूँ,
देश-जहाँ की फ़िकर के मारे,
पढ़ पाते, सब संग ये सारे।

अभी तो इतनी, छोटी हूँ मैं,
फिर भी मुश्किल,
रोती हूँ मैं।
बड़ों के जितनी,
बड़ी जो होती,
आसमान तक,
खड़ी जो होती,
पलक झपकती,
निपटा देती,
हर उलझन को,
सुलझा देती।

पापा खाली, मम्मी खाली,
बात बनाते,
बड़ी बबाली।
पापा का क्या,
दफ्तर जाना।
मम्मी का क्या,
लंच लगाना।
घर तो पूरा,
मुझे चलाना।

मैं चलती, तो मम्मी चलती,
मैं चलती,
तो पापा चलते।
मैं चलती,
तो अम्मा चलती,
मैं चलती,
तो बाबा चलते,
उंगली मेरी,
थाम संभलते।
मैं ना चलती,
तो ये चलते ?
बैठे रहते,
खाट पकड़कर,
हाथ में अपने,
हाथ पकड़कर।


सोच रहे हैं, पाल रहे हैं,
चार ये मुझे,
सम्हाल रहे हैं।
कोई कह दे,
इनसे जाकर,
और लगा दें,
चार यहाँ पर।
घुटने भर की,
टेक बहुत हूँ,
बेबी बस मैं,
एक बहुत हूँ। 

Saturday, June 29, 2013

फौज।

(dedicated to my 7 months old daughter 'Suvi' ) 
डेढ़ फीट की फौज है,
हर तरफ मन मौज है।
कुछ भी लो और तोड़ दो,
उथल-पुथल के छोड़ दो,
घुटनों के बल,
बस चल निकल,
पलंग के नीचे से हो,
फ्रिज के पीछे से हो,
कोना कोई निकाल ले,
मोर्चा संभाल ले।

दुश्मन जो आये खोजता,
निहत्था, तुझको सोचता,
वीरता से वार कर,
चित खाने चार कर,
दुश्मन की दाढ़ी ले पकड़,
कान कर अकड़-मकड़,
अंगूठे दोनों चाब ले,
हिले तो नाक दाब ले
,
और गीले जो निशान हों,
किला फतह की शान हों।

हथियार अपने डारकर,
हार को स्वीकार कर,
दुश्मन कहे के अर्ज है,
कि बेटे कहना फर्ज है,
पेट में कुछ डाल ले,
फिर मोर्चा संभाल ले।

बारह बजे हों रात हो,
फौज पर तैनात हो,
पाँच फीट समेट कर,
घुटने दोनों टेक कर,
दुश्मन कहे ये सहम कर,
के दस मिनट तो रहम कर,
देर कुछ तो साँस ले,
दुश्मन बेचारा हाँफ ले,
ये फौजदारी कल जो कर,
ये युद्ध जारी कल जो कर।


फौज का एहसान है,
कि फौज भी इंसान है,
इंसानियत में डूबकर,
कभी भूल-चूककर,
फौज जो हो सो रही,
तैयार फिर से हो रही,
दुश्मन शुक्रगुज़ार हो,
कि झपकी एक मार लो,
कि अब तो आँख लग गई,
फौज फिर जो जग गई,
फौज तो फिर फौज है,
फौज पर क्या रौब है। 

Sunday, March 3, 2013

लाईसैंस


जज साहब,
ये साहब
जो कठघरे में भोले बने खड़े हैं,
इनके कारनामे, इनके कद से भी बड़े हैं,
ये कहते हैं,
ये बेकुसूर हैं,
बकवास...,
हकीकत ये है,
कि ये हकीकत से कोसों दूर हैं।

कानून ने इन्हें कविता लिखने की इज़ाजत दी,
इन्होंने कहानी लिख दी,
इनसे कहा था, कुछ नया लिखना,
इन्होंने फिर भी, बात वही पुरानी लिख दी।

जज साहब,
इन पर इल्ज़ाम है,
कि ये सोचते हैं।
हमारे पास सबूत हैं,
हमारे पास गवाह हैं,
कि इन्हें दिन दहाड़े,
फत्तो बावरी चौक पे,
भरे बाज़ार,
बेधड़क, बेखौफ, बेमतलब और बेकार,
सर के बाल नोचते हुये पाया गया,
सरेआम सोचते हुये पाया गया।
और जब इन्हें रोका गया,
बतौर मश़वरा टोका गया,
तो ये अपने आपे से बाहर हो गये,
बताइये,
कानूनी लोगों पर,
कानून लेकर सवार हो गये।
चार लफ्ज़ क्या पढ़ लिख लिये,
ये लिखा-पढ़ी पर उतर गये,
हमारा लिखा हुआ संविधान पढ़ा,
और हमीं पर चढ़ गये।

जज साहब,
ये न सिर्फ सोचते हैं,
बल्कि कुछ भी सोचते हैं।
सबसे पहले तो इन्होंने खुद को,
इंसान सोच लिया,
फिर साँस लेने की रियायत को
 खुदा का फरमान सोच लिया,
और जज साहब हद तो तब हो गई,
जब इन्होंने, देश की लोकतांत्रिक सरकार को,
लोकतांत्रिक सरकार सोच लिया,
औ बताईये,
इन्हें सोचने की ज़रा सी छूट क्या मिली,
इन्होंने तो सोचने को ही अपना बुनियादी अधिकार सोच लिया।

जज साहब,
गर ये सोचते,
और बस सोच के छोड़ देते,
तो भी हम मुद्दे को,
मुकद्मा बनने से पहले ही तोड़ देते,
पर इनकी हिमाकत देखिये,
ये न सिर्फ सोचते हैं,
बल्कि ये तो अपनी सोच के,
अमली जामे भी खोजते हैं।
इनकी सोच के एक सौ चालीस कैरैक्टरों से,
इतने पंगे हो गये,
कि इनके फेसबुक स्टेटसों से,
सांप्रदायिक दंगे हो गये,
और जज साहब,
इनकी सोच से तो देवी देवता तक नंगे हो गये।
गर हम इन्हें वहीँ ना रोक लेते,
ये तो पता नहीं और क्या-क्या सोच लेते।

ये कहते हैं,
कि ये लिबरल हैं, मॉडर्न हैं, आर्टिस्ट हैं,
बकवास,
दरअसल ये फार्सिस्ट हैं।
ये सोचते हैं,
कि ये फ्रीडम ऑफ एक्सप्रैशन की दुहाई देंगे,
और बस सोच लेंगे।
लेकिन ये ये नहीं जानते,
कि लोकतंत्र में जिसका पलड़ा भारी है,
बस वही सरकारी है।
कानून उसकी हवाई चप्पल है,
और संविधान उसकी ब्याहता नारी है,
और इन्हें ज़रूरत क्या है कि ये कुछ भी सोचें,
इसके लिये तो हमारे पास पे-रोल पर अधिकारी हैं,
और इन्होंने सोच-सोचकर उसके पेट पे लात मारी हैं,
इसलिये जज साहब,
न केवल इनका सोचा हुआ ही निरस्त किया जाये,
बल्कि इनका सोचने का लाईसैंस भी ज़ब्त किया जाये,
न रहेगी सोच,
न लगेगी मोच। 

Sunday, January 13, 2013

शोकथाम।


ढोल बज गया है।
मंच सज गया है।
माईक में चिल्ला कर दखो,
स्टेज पूरा हिला कर देखो,
अभी-अभी बस पता चला है,
बलात्कार पर शोक सभा है।

दिल्ली में एक रेप हुआ है,
महिला पर आक्षेप हुआ है,
बलात्कारी तो भाग गया है,
लेकिन, देश तो जाग गया है।
इसीलिये तो शोकसभा है,
अभी-अभी तो पता चला है।

चारों ओर कोहराम मचा है,
कोना कोई कहाँ बचा है,
ऐसा हस्तक्षेप हुआ है,
देश में पहला रेप हुआ है,
इसीलिये तो शोकसभा है,
अभी-अभी तो पता चला है।

मुनियों, गुणियों, ज्ञान का भारत,
माता सम सम्मान का भारत,
वो भारत जो जगत-गुरू है,
हाय.. वहाँ भी रेप शुरू है,
इसीलिये तो शोकसभा है,
अभी-अभी तो पता चला है।

मंच पे अब तो चढ़ना ही होगा,
भाषण भी एक पढ़ना ही होगा,
चिल्लाना होगा चीत्कार,
बंद करो बस अत्याचार।
इसीलिये तो शोकसभा है,
अभी-अभी तो पता चला है।

पत्रकार भी बुलाने ही होंगे,
आँसू चार बहाने ही होंगे,
होगा थोड़ा सोच-विचार,
वादे भी तो होंगे चार,
इसीलिये तो शोकसभा है,
अभी-अभी तो पता चला है।

देश में पूरे एक ही मत है,
कुछ भी हो, पर रेप गलत है।
फूँको गाड़ी, तोड़ो कार,
रेपों को पर रोको यार,
इसीलिये तो शोकसभा है,
अभी-अभी तो पता चला है।

ज्ञानी, ध्यानी, नेता बेमानी,
बाबा, अम्मा, नाना-नानी,
सबका एक-एक,
साक्षात्कार।
इसीलिये तो शोकसभा है,
अभी-अभी तो पता चला है।

पहले भ्रष्टों पर शोक हुआ था,
फिर आतंकवाद का विरोध हुआ था,
और आज का मुद्दा,
बलात्कार।
इसीलिये तो शोकसभा है,
अभी-अभी तो पता चला है।

Sunday, September 30, 2012

एक रोमैंटिक कविता।

   कवि से कवि की पत्नी बोली,
मेरे प्रियवर मेरे हमझोली,
ये हास्य-व्यंग्य अब बहुत हुआ,

और सत्-प्रसंग सब बहुत हुआ,
शब्दों में तुम्हारे भार है पर,
बोलो कविता में, प्यार किधर।

कुछ लिखो अपने प्यार पे भी,
हम दोनों के संसार पे भी,
कुछ शब्द कहो मेरी आँखों पर,
कुछ मीठी मेरी बातों पर।
मुझे फूल कहो या चाँद कहो,
या धूप में ठंडी छाँव कहो,
या कह दो, मैं हूँ सोन परी,
आकाश से धरती पर उतरी,
चलदूँ तो वक्त ठहर जाये,
ना साँझ घिरे, ना सहर आये।
हँसती हूँ, झड़ते हैं मोती,
मैं ही हूँ आशा की ज्योति,
मुझसे रौशन है जहान, कहो,
कभी प्यार से मुझको, जान कहो।

लिखो की मुझ पर मरते हो,
बस कहने ही से मुकरते हो,
उपमा ना सही, अनुप्रास सही,
कुछ सच हो, कुछ बकवास सही।
कुछ रोमैंस से भी तो पृष्ठ भरो,
कवि हो कविता कुछ मुझ पे करो।
या कहदो मुझसे प्यार नहीं,
या आर नहीं या पार नहीं।

सारी खुदाई एक तरफ,
पत्नी की दुहाई एक तरफ।
कवि ने सारी हिम्मत जोडी,
और सोच के, यूँ चुप्पी तोड़ी,
कि पत्नी जी तुमसे प्यार बहुत,
शब्दों का भी अंबार बहुत,
कमतर नहीं जानो नीयत भी,
जायज़ है बड़ी नसीहत भी,
रस भी, श्रंगार सजा डालूँ,
उपमा-अनुप्रास लगा डालूँ।
दे डालूँ तुमको नाम कई,
प्रियता, परीणिता, प्रेममयी।
रख दूँ दिल अपना, पन्नों पर,
लिख भी डालूँ, कविता तुझ पर,
बोलो उससे भी क्या होगा,
कागज़ पर अक्षर स्याह होगा।

मैं तो कवि बस शब्दों का,
वही पन्द्रह-सत्रह जज़्बों का,
तुम रचती नित नूतन रचना,
चेतन, सजीव, नहीं-कल्पना।
तुमसे पहले जब जीता था,
जीना भी एक फजीता था,
अब संग तुम्हारा जीता है,
अब तो जीवन ही कविता है,
अब तुक भी है, और अर्थ भी है,
कहीँ-कहीँ कुछ व्यर्थ भी है,
पर धुन तो है, एक राग तो है,
खाने में रोटी संग साग तो है।
बेजान शब्द कुछ भी लिख कर,
मैं क्या बोलूँ, कविता तुम पर।
बेनामी के पीछे गुम हो,
कवयित्री तो दरअसल तुम हो।

कहकर कवि की यूँ, साँस चली,
कुछ देर सही, पर बात टली,
कविता जो नहीं तो नहीं सही,
रोमैंटिक जैसी कुछ बात कही।
अब आप कहो इस दुनिया में,
जहाँ, लोग मिला, जामुनिया में,
कोयला तक काला खा जायें,
और स्पैक्ट्रम को भी चबा जायें,
हमको रोमैंटिक खयाल कभी,
आयें भी तो कैसे आयें।
और दुनिया को समझा भी दें,
पत्नी को कैसे समझायें।
अम्मा, समझो बकरे की है,
कब तक इस दिल को बहकायें।

Friday, July 6, 2012

हम तोप हैं।


हम कौन हैं।
हम.... कौन हैं।
हमें हमारी तारीफ करने के लिये कह रहे हैं,
बाद में
कहियेगा कि साब भावनाओं में बह रहे हैं।

हम तोप हैं।
हम..... तोप हैं..,
और तोप के गोले भी हम खुद ही हैं।
और हमें तोपची की जरूरत थोड़ी है,
हम तो खुद को खुद में भरकर,
खुद ही आग लगा देते हैं।
और दुनिया को बता देते हैं,
कि हम तोप हैं।

आपने कभी हाथी देखा है,
हाथी...,
हाथी चलता है,
कुत्ते भौंकते हैं,
पर हम हाथी थोड़ी हैं,
हम तो तोप हैं,
हम तो खुद चलते हैं,
और खुद भौंकते हैं,
कि हम तोप हैं।

हम कोई ऐसी वैसी तोप थोड़ी हैं,
ना...
,
हम चलते हैं,
और हमेशा निशाने पे लगते हैं,
हमारे निशाने अचूक हैं,
और हमारी हर जीत के
,
हम खुद ही एक सबूत हैं,
हमें दुनिया के सर्टीफिकेट की जरूरत थोड़ी है,
ना.....
दुनिया क्या जाने तोप,
क्या तोप का गोला..
.
दुनिया तो ना तोप..,
ना तोप का गोला...।
हम तोप हैं।

हम कहें कि हम चले,
तो हम चले...।
हम कहें कि हम लगे,
तो हम लगे...।
और आपको ना लगे,
तो ना लगे,
हमें कोई अफ्सोस नहीं,
क्यों कि हमें पता है,
इसमें हमारा कोई दोष नहीं।
हम तो श्रेष्ठ हैं,
और श्रेष्ठ क्या,
अलमोस्ट सर्वश्रेष्ठ हैं।


हमारी सफलता से,
दुनिया ओत-प्रोत है,
हमारा व्यक्तित्व,
प्रेरणा का जीता जागता स्रोत है,
और आप कहते हैं,
कि हम भावनाओं मे बह रहे हैं,
जनाब अखबार पढ़िये,
लोग क्या-क्या कह रहे हैं।
गूगल कीजिये हमारा नाम,
आपको पता चलेगा हमारा काम,
और आपको पता चलेगा,
कि हम हवा में नहीं छोड़ते।
हम हवा में छोड़ते नहीं हैं,
हम हवा में दागते हैं,
क्योंकि...हम तोप हैं।