Monday, April 25, 2011

ये साले... सपने!

काश....., ये सपने ना होते,
या फिर…., ये साले अपने ना होते..।
चलो होते ..., तो इतने, बड़े ना होते,
हरदम,... सर पर चढ़े ना होते।

अब देखो...,
अच्छी खासी नौकरी है,
बढ़िया से बीत रही है,
खूब कमा रहा हूँ,
पी रहा हूँ, खा रहा हूँ,
पैसे भी बचा रहा हूँ,
फिर भी ....
एक ही बात मना रहा हूँ,
कि काश..., ये सपने ना होते,
या फिर..., ये साले अपने ना होते।

ये साले ...सपनें...
रातों को डेढ़ बजे आते हैं,
साढ़े तीन बजे फिर चक्कर लगाते हैं,
और सुबह पाँच बजे,
तो कान में ऐसी फुरफुरी मचाते हैं,
कि मैं कहता हूँ
भैय्या सोने दे,
मैं भी इंसान ही हूँ,
थोड़ी देर तो चैन होने दे।
कहतें हैं, कि बस हो गया,
चद्दर तानी सो गया।
सपने इतने बड़े-बड़े,
पूरे होंगे पड़े-पड़े।

सालों की...हिम्मत देखो,
मेरे सपने..., मेरे सपने में आके, मुझे...,
मेरा ही सपना बता रहे हैं,
मैं नींद में हूँ इसलिये जिंदा हैं,
और मुझे ही उठा रहे हैं।

एक दिन मैं भी आपे से बाहर हो गया,
मैंने दिमाग के हर दरवाजे पे ताले लगा दिये,
और आने-जाने वाले रस्ते पे रखवाले लगा दिये,
कि हर खयाल का नाम पूछना,
क्यों आया है, काम पूछना,
और लौटेगा कैसे, इंतजाम पूछना।
पर क्या ताले,
और क्या रखवाले,
ये साले.... सपने,
चोर नहीं है,....डाकू हैं,
सबके हाथ में बड़े-बड़े चाकू हैं,
सालों ने पूरे दिमाग को हाईजैक कर लिया,
और दिमाग के हर उस हिस्से को हैक कर लिया,
जो मेरे हिसाब से ठीक था,
दुनिया के हिसाब से भी सटीक था,
और अब देखो,
अच्छी खासी नौकरी है, बढ़िया से बीत रही है,
खूब कमा रहा हूँ, पी रहा हूँ, खा रहा हूँ,
फिर भी ये सपने, बड़े-बड़े सपने दिखाते हैं,
और ऐसी-ऐसी चीज करवाते हैं,
कि सब हमें देखके एक ही चीज फरमाते हैं,
कि काश ये सपने ना होते,
या फिर.... ये साले अपने ना होते।

Monday, January 31, 2011

ये शहर।

ये शहर रोता नहीं है,
ये शहर हँसता नहीं।
ये कभी सोता नहीं है,
ये कभी जगता नहीं।

ये शहर छोटा नहीं है,
पूरा भी पर पड़ता नहीं।
कोई यहाँ तन्हा नहीं है,
और साथ भी चलता नहीं।

ये शहर जीता नहीं है,
ये शहर मरता नहीं।
ये जगह कोई शहर ही है,
या ये कोई शहर ही नहीं?

Thursday, January 6, 2011

डिस्क्लेमर।

मैं इंटैलैक्चुअल नहीं हूँ,
और मैं क्या,
मेरा बाप भी इंटैलैक्चुअल नहीं है,
और मेरी माँ तो,
इंटैलैक्चुअलिटी के आस-पास भी नहीं है।
मेरे पूरे सर्किल में ही,
कोई इंटैलैक्चुअल नहीं है,
क्योंकि जो इंटैलैक्चुअल हैं,
वो मेरे सर्किल में नहीं है।

करीब आठ साल पहले,
मैं पहले इंटैलैक्चुअल से मिला था,
उसी से इस शब्द का पता चला था।
कुछ तो मतलब उसने बताया था मुझको,
और कुछ भी समझ में ना आया था मुझको।
मतलब छोड़ो,
आठ साल में मुझे इसकी स्पैलिंग भी ना आई,
कितने ई, कितने एल, और जाने कितने हैं आई।
और आती भी कैसे,
जब मैं इंटैलैक्चुअल ही नहीं हूँ।

मुझे अफ्सोस है,
कि आपको अफ्सोस है,
कि मैं इंटैलैक्चुअल नहीं हूँ।
पर अब होनी को कौन टाल सकता है।
वैसे, मैं खासा अक्लमंद हूँ,
मैट्रिक, इंटर, ग्रेजुएशन सब पढ़े हैं,
कुछ-एक अंग्रेजी के नॉवेल भी पढ़े हैं।
मसाले वाले।
पढ़ने में अच्छे लगे थे,
शायद उनके ऑथर भी,
मेरी ही तरह इंटैलैक्चुअल नहीं थे।

मेरी कवितायें,
जिन्हें मैं शब्दों के अभाव में,
कवितायें कहता हूँ,
कवितायें नहीं हैं।
क्योंकि कवितायें तो इंटैलैक्चुअल्स बनाते हैं,
और इंटैलैक्चुअल्स ही कविताओं को समझ पाते हैं।
मेरे जैसे लोग तो बाजू वाले की ईंट लेते हैं,
बराबर वाले का रोड़ा उठाते हैं,
और कविता के नाम पर,
भानुमती का कुनबा जुटाते हैं।

अगर मेरे बसका होता,
तो मैं इस जोड़-तोड़ को,
कोई नया नाम देता,
और इस बकवास को कविता कहकर,
ना तो कविता को अपमान करता,
और ना आपको हैरान करता।
आप ही कुछ नाम बता दें,
और मेरी कविताओं से,
कविताओं के हो रहे, अपमान से,
कविताओं को बचा दें।

मेरी ये लिखावट,
जो साहित्य की दृष्टि से बकवास है,
समाजिक दृष्टि से कोरा परिहास है,
वर्तमान की दृष्टि से ना तो इसका कोई भविष्य है,
और ना ही इसका कोई इतिहास है,
मेरी दृष्टि से फिर भी, मेरे लिये खास है।

मैं जानता हूँ,
कि मेरे जो विचार हैं,
वो मेरी ही तरह बेकार हैं।
ना तो ये, कभी कोई ऐवार्ड जीत पायेंगे,
और ना ही समाज में,
ये कोई भा क्रांति लायेंगे।
लेकिन फिर भी,
अपने इन विचारों के लिये,
मैं बिल्कुल भी शर्मिंदा नहीं हूँ,
क्यों कि किसी भी प्रकार के,
साहित्यिक उपकार के लिये,
मैं लिखता नहीं हूँ।

मेरी दो-चार लाईनें सुनकर,
दो-चार लोग,
दो-चार मिनट हँस ले,
यही मेरे लिये काफी है,
और इसके अतिरिक्त,
किसी भी महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिये,
मेरी अनुपयुक्तता के लिये,
गुजारिश-ए-माफी है।

मेरी तथाकथित कविता आपको सुननी पड़ी,
इसके लिये मुझे अफ्सोस है।
आपके चेहरे से प्रस्फुटित तेज को भी,
मैं पहचान ना सका,
ये भी मेरा ही दोष है।

किंतु अब मैं आपको आश्वासन दिलाता हूँ,
कि आगे से पूरी सावधानी बरतूँगा,
और कुछ भी सुनाने के पहले,
ये डिस्क्लेमर रख दूँगा,
कि मैं इंटैलैक्चुअल नहीं हूँ,
ये कविता, कविता नहीं है,
मेरे विचार क्रांतिकारी नहीं हैं,
और साहित्य मेरा आभारी नहीं है।
और ये सब जानने के बावजूद,
गर आप शौक फर्मायेंगे,
तो ही आपको अपनी रचना सुनायेंगे।
और भगवान ना करे,
यदि आपको मेरी रचना,
जरा सी भी पसंद आती है,
बहीं खतरे की घंटी बज जाती है।
क्यों कि मैं तो इटैलैक्चुअल हूँ ही नहीं,
पर शायद.
आप भी इंटैलैक्चुअल नहीं हे।
इसलिये,
मेरी इस बात का इकबाल करिये,
कि आगे से आप भी,
ये ही डिस्क्लेमर इस्तेमाल करिये।

Saturday, December 11, 2010

तेरा खयाल।

निगलते भी नहीं बनता,
उगलते भी नहीं बनता,
ना बनता है ये सुनते ही,
और कहते भी नहीं बनता।
कहीं तो है,
कि कुछ तो है,
जो गले के बीच में जाकर,
किसी भित्ती से टकराकर,
अटकता है,
खटकता है।
कितना भी हिला लें सर,
मगर बनकर, अचर, ये पर,
ना हिलता है,
ना डुलता है।
ताला है कोई जंगी,
कहाँ ताली से खुलता है।
हम तो तोड़ भी देते,
और इसको छोड़ भी देते,
मगर फौलाद है इतना,
कि कोशिश भी करें कितना।
ये जो खयाल है तेरा,
बनाकर ढीट ये डेरा,
कि बैठा है ये जम के बन,
अमन से जकड़े मेरा मन,
मेरा मौला, मेरा मालिक।
बनाकर मुझको नाबालिग,
घुमाता है, फिराता है,
कि तबला हूँ, मैं क्या कोई?
कि ये तालें बजाता है।
इसकी ताल की ठोकें,
कि कैसे हो, इन्हें रोकें,
ये बजती हैं,
तो घुसती हैं,
कानों के पटल को चीर,
हर हिस्से में चुभती हैं।
ना मरता है,
ना डरता है,
करूँ भी क्या कहो इसका,
कि सब कुछ ये ही करता है।
मैं तो बस थाम लेता हूँ,
कि भरकर जाम लेता हूँ,
कभी खाली नहीं करता,
कि ये ही है, जो पीता है,
मुझे बद्-नाम करता है।
तुम मुझको सुनाते हो,
चरसी हूँ, भगाते हो,
कोई इसको भी कुछ बोले,
कि जरा सा तो उधर हो ले,
ये खाला का समझकर,
घऱ,
यहाँ घर कर के बैठा है,
ना मरता है, ना जीता है।
अब तो मान बैठा हूँ,
कि मैं ये जान बैठा हूँ,
कि मैं तो भुला भी दूँगा,
तिमिर कोने, किसी मन के,
कि इसको सुला भी दूँगा,
मगर ये ना भुलायेगा,
ये मेरे संग जीयेगा,
ये मेरे संग जायेगा।
तुझसे तो कहीँ अच्छा,
ये खयाल है तेरा,
तूने तो कभी मुड़कर,
पीछे भी नहीं देखा,
ये मेरे संग जीता है,
ये मेरे संग मरता है।

Sunday, October 24, 2010

बचपन।

बचपन।

दिन भर के हम हिले हुये से,
खरबूजा कटकर खिले हुये से,
खुद की खुद में डूबे–डूबे,
ताज से भी हम बड़े अजूबे,
बाल खुद ही के नोच रहे थे,
कि ऑफिस से हम लौट रहे थे।

आँखों के घोड़ों को हाँका,
और खिड़की के बाहर जो झाँका,
भरी सड़क से थोड़ी हटकर,
रैलिंग पर ठोड़ी को धरकर,
बचपन सर को खुजा रहा था,
वही पहेली बुझा रहा था।

धूल से जूते धुले हुये थे,
दोनों फीते खुले हुये थे,
कपड़े सारे सने हुये से,
किसी तरह बस बने हुये से,
शायद, बस्ता ज़रा बड़ा था,
लदा अभी भी वहीं पड़ा था।

नाक से थोड़ी नाक-सिकोड़ी,
आँख से थोड़ी आँख-मिचोली,
टाँग से थोड़ी टँगड़ी खेले,
पत्थर की फुटबॉल धकेले,
उछल-उछल कर भाग रहा था,
चाल पुरानी नाप रहा था।

यूँ तो माँ ने पकड़ रखा था,
एक हाथ को जकड़ रखा था,
दाँत को अपने भीँच-भीँच पर,
ताकत सारी खीँच-खीच कर,
जान, फूँक सी, उड़ा रहा था,
हाथ को अपने छुड़ा रहा था।

नज़र मिली तो हँसकर घूरा,
ऊपर से नीचे तक पूरा,
चीज़ अनोखी देखी हो ज्यों,
दिखा, हमें अपनी माँ को यों,
मुँह को अपने बिरा रहा था,
बचपन हमको चिढ़ा रहा था।

हमने अपना ध्यान हटाया,
उसे छोड़ कहीँ और लगाया,
ऑफिस का बड़ा काम था बाकि,
घर में ना काँदा, ना भाजी,
उसका क्या, वो तो बचपन था,
उसका हँसने का सीज़न था।

ह्रदय-हठीला कुछ देर तो भटका,
फिर साला पर वहीं पे अटका,
मुँह टेढ़ा कर, नज़र चुरा कर,
देखा, गर्दन ज़रा घुमाकर,
आँखों में परिहास भरा था,
बचपन अब भी वहीं खड़ा था।

दिन भर की सब थकन सकेरी,
होंठो पर मुस्कान बिखेरी,
व्यंग्य भरी एक तरंग (ध्वनि) को छोड़ा,
हँस ले बेटा, तू भी थोड़ा,
और अभी दिन चार रहेगी,
बचपन की अभी बहार रहेगी।

थोड़ा और बड़ा तो हो ले,
पैरों पर ज़रा खड़ा तो हो ले,
जिम्मेदारी जब आयेगी,
घिग्गी तेरी बँध जायेगी।
हँसी की लाईन, होंठ से हटकर,
माथे की सिल्वट बन जायेगी।
फिर से, हम फिर बात करेंगे,
कैसी बीती रात करेंगे।

सुनकर ऐसी, बात हमारी,
बचपन ने ताली दे मारी,
पेट पकड़ कर हँसते-हँसते,
बोला तुम कुछ नहीं समझते।
इतने बड़े हुये क्या खाकर,
झक मारी थी कॉलिज जाकर ?

ये बचपन है, बचपना नहीं है,
इसकी कोई उमर नहीं है,
बचपन, तेरा बीत गया है,
तू जीवन से खीझ गया है।
मुझे अभी भी प्यार है मुझसे,
कुढ़ता नहीं कभी मैं खुद से।

बुढ्ढे हो, एक दिन मर जायेगा,
फिर भी क्या तू कर पायेगा।
जीवन ही तू जीता है कल में,
जबकि मैं जीता पल-पल में।
इसलिये, जब भी मैं तुझको कभी मिलूँगा,
हँसता हुआ ही कहीं मिलूँगा।

हमने फिर से ध्यान हटाया,
उसे छोड़ कहीँ और लगाया,
ऑफिस का बड़ा काम था बाकि,
घर में ना काँदा, ना भाजी।
फिर थोड़ा सा आगे जाके,
देखा हमने नज़र बचाके
आँखों में परिहास भरा था,
बचपन अब भी वहीं खड़ा था।
मुँह को अपने बिरा रहा था,
बचपन हमको चिढ़ा रहा था।

Sunday, August 8, 2010

समझे?

हम समझे-

कि तुम समझे।

और, तुम समझे-

कि हम समझे।

पर हकीकत में,

हकीकत को,

ना तुम समझे,

ना हम समझे।


समझते जो,

हकीकत को,

अगर एक-दूसरे की तो,

समझते-

कि समझने से,

कभी बढ़कर,

समझाना नहीं होता।


समझाकर, समझ अपनी,

हमको,

समझते थे तुम,

कि समझदारी,

से जिम्मेदारी,

अपनी निभाई तो थी।

समझदार, अपनी समझ में,

पर हम भी कम ना थे।

समझाने से,

अपनी समझ को,

इसलिये हम भी ना हटे।


समझाकर तुम्हें,

समझा ये हमने-

कि तुम समझ गये,

और तुम समझे यूँ बैठे थे –

कि शायद, हम समझ गये।

पर हकीकत में,

हकीकत को,

ना तुम समझे,

ना हम समझे।