Saturday, April 24, 2010

ऑर्डर पर कविता।

शादी-ब्याह के मौके पर गीत गुनगुनाना हो,

रुठी पत्नी को प्यार से मनाना हो,

इंडियन आईडल में अपना सिक्का जमाना हो,

या जनाब, बाथरुम के कोने से ही अपना टैलेंट दिखाना हो।

हर मौसम के लिये हर मूड पर नज्म हैं,

हमारे यहाँ बढ़िया कविता ऑर्डर पर उपलब्ध हैं।


पत्थर को हँसाना हो, हँसते को रुलाना हो,

मुर्दे को जगाना हो, जगते को सुलाना हो,

दिल के बड़े से बड़े जख्म को भुलाना हो।

कविता के सब रस हमारे पिटारे में जब्त हैं,

हमारे यहाँ बढ़िया कविता ऑर्डर पर उपलब्ध हैं।


नर्सरी के बच्चों के लिये चार लाईनों की कविता,

भगवान के भक्तों के लिये लम्बी-लम्बी चरिता,

बेमतलब की बातों की तुकबंदी की कविता,

गहरे विचारों की डुबकी की सरिता।

उम्दा भावों के लिये चुनिंदा शब्द हैं,

हमारे यहाँ बढ़िया कविता ऑर्डर पर उपलब्ध हैं।


हठी लड़की पटानी हो, पटी लड़की हटानी हो।

दिल आपका टूट गया हो, अपना कोई छूट गया हो।

प्यार में धोखा हुआ, गम का कोई मौका हुआ।

जिंदगी से हताश क्यों, गुप्त रोगी निराश क्यों।

हमारी लिखी कविता के गारंटीड रिसल्ट्स हैं,

हमारे यहाँ बढ़िया कविता ऑर्डर पर उपलब्ध हैं।


अरे साहब, एक दफा आज्मा कर तो देखिये,

चार पैसे हम पर भी लगा कर देखिये।

ऐसे ही थोड़ी ना ये दुकान जमाई है,

क्रियेटिविटी है, तभी तो उसकी कीमत लगाई है।

कविता की क्वालिटी के रेटवाईज़ स्लैब्स हैं,

हमारे यहाँ बढ़िया कविता ऑर्डर पर उपलब्ध हैं।


क्या कहा, पिछली कविता काम नहीं आई है,

देखें जरा, आपने कहाँ से लिखाई है।

जरा इसकी मैनूफैक्चरिंग डेट तो दिखाईये,

अरे साहब, ये एक्सपायर्ड है, दूसरी लिखाईये।

एक साल पुरानी कविता को लेकर क्यों इतने स्तब्ध हैं,

हमारे यहाँ बढ़िया कविता ऑर्डर पर उपलब्ध हैं।

Saturday, March 6, 2010

तयशुदा।

तय कर – तुझको क्या पढ़ना है।

तय कर – तुझको क्या बनना है।

किससे, कब, क्या बात कहेगा।

कदम-कदम पर कैसे बढ़ेगा।

ये भी तय कर - क्या खायेगा।

ये भी तय कर – कहाँ रहेगा।

जीवन के पल-पल को तय कर,

जीवन के इस सफर को तय कर।


तय की लय को बहुत सुना था।

आशाओं का जाल बुना था।

पहले मैं भी तय करता था।

बड़ी-बड़ी उम्मीद थी मुझको।

लेकिन, तय की उन तहों में फँसकर,

कई बार अब बिखर चुका हूँ।

जब तय है, जो भी ना तय है,

अंत में सब कुछ वही तो होगा।

कुछ तयकर, उम्मीद लगा कर,

बोलो इससे क्या तय होगा ?

अब मैंने भी तय ये किया है,

आगे कुछ भी तय ना करूँगा।

Thursday, February 4, 2010

मैं और कवि एक नहीं हैं।

मैं और कवि एक नहीं हैं,

हाँलाकि
दोनों मुझमें ही कहीं है।

मैं
एकदम आम इंसान हूँ,

और
आधे से ज्यादा समय अपनी जिंदगी से परेशान हूँ।

यूँ
वो भी जिंदगी से पस्त है,

पर
, जाने क्यों फिर भी वो मस्त है।

वो
कभी-कभी आता है,

और
किसी किरायेदार की तरह मुझे किनारे कर,

सीधा
ऊपर वाले माले पर चढ़ जाता है,

जब
तक मन करता है मजे से रहता है,

अजीब
-अजीब सी बाते कहता है,

एक
-दो दिन खराब कर देता है,

और
फिर चुपके से खिसक लेता है।

अभी
, पिछले डेढ़ हफ्ते से उसे खोज रहा हूँ,

क्या
पता बताया था, सोच रहा हूँ।

कम्वखत
, बड़ा मौनमौजी है,

खुद
तो अपनी मर्जी से आता है, अपने मन से लिखता है,

पर
, ये बंदा जो बिना मर्जी के भी सबको दिखता है,

जो
यहाँ-वहाँ मौका देखता है,

और
दिख-दिख कर तारीफ लपेटता है,

इसे
तो इस नशे की लत पड़ गई है,

अब
वो तो आया नहीं है, और मन में अजीब सी हठ चढ़ गई है,

इसलिये
दिमाग लगा-लगा कर कुछ बना रहा हूँ,

खुद
तो असलियत से वाकिफ हूँ,

लेकिन
कवि हूँ कहकर बाकि सबको बना रहा हूँ।

क्योंकि
हाँलाकि दोनों मुझमे ही कहीं है,

पर
फिर भी मैं और कवि एक नहीं हैं।

Sunday, January 24, 2010

मेरी छवि, मेरी कविता

प्रसंग- ये पंक्तियाँ एक प्रयास है उस लड़की के मन को समझने का जिसकी शादी तय हो चुकी है और बस इंतजार है तो कुछ और दिनों का।

मेरी छवि, मेरी कविता।

दर्पण
में छवि का दरस करूँ,

और दर्प भरी मुस्काती हूँ।

चेहरे
पर नाना भाव बना,

हर
भाव उसे समझाती हूँ।

छवि
की भाव-भंगिमा पर,

हँसती
हूँ, उसे हँसाती हूँ।

श्रंगार
निराला करती हूँ,

छवि
को भी अपनी सजाती हूँ।

छवि
पर अपनी ही मोहित हो,

मैं
देख-देख इठलाती हूँ।

पिया
-रिझावन कौन कठिन,

छवि
को अपनी बतलाती हूँ।

छवि
का ऐसा रुप सजा,

छवि
से ही मैं घबराती हूँ।

छवि
ही कहीं जो सौत हुई,

दर्पण
से आँख चुराती हूँ।

मुझ
सम सुंदर, मेरी छवि से,

जलती
हूँ, उसे जलाती हूँ।

मेरी
छवि है मेरी कविता,

जिसको
पढ़-पढ़ मैं लजाती हूँ।

Friday, January 15, 2010

खुशी नाम की एक चवन्नी।

ढूँढ रहा हूँ एक ऱुपये में,

खुशी नाम की एक चवन्नी।

हिला-डुला कर, उलट-पुलट कर,

कब से इसको ताड़ रहा हूँ।

यूँ तो इसमें चार-चार हैं,

वही चवन्नी हार रहा हूँ।

सोता था सिरहाने पे रख़,

रखता था दिन-रात सहेजे।

एक ही बस वो बहुत बड़ी थी,

छोटे से ख्वाबों को मेरे।

उम्र बढ़ी, फिर ख्वाब बढ़े,

और ख्वाबों के जब भाव बढ़े,

मैंने जाने कहाँ खरच दी,

रिला-मिला बाकी पैसों संग।

सोचा ये तो चार आने हैं।

अब जाने, कल फिर आने हैं।

आने को, आने फिर आये,

और अब तो पैसे भरे पड़े हैं।

कई नोट तो बहुत बड़े हैं।

दिखती नहीं मगर फिर भी क्यों,

खुशी नाम की वही चवन्नी।

कहते हैं सब लोग यहाँ अब,

चार आनों का मोल नहीं है।

चार आने की क्या कहते हो,

रुपये तक का तोल नहीं है।

तोल-मोल का नाप बिठाकर,

सबकी कीमत आँक चुका हूँ।

नपी-तुली इस दुनिया के संग,

बहुत दूर तक हाँफ चुका हूँ।

अब पैरों में जान नहीं है,

बाकी एक अरमान यही है-

अबकी बार नहीं चूकुँगा,

सीधे मुठ्ठी में भर लूँगा,

भीख में कोई, फिर से जो दे दे,

खुशी नाम की एक चवन्नी।

Thursday, January 14, 2010

वो दुनिया।

अक्सर यूँ लोगों को कहते सुना है-

ये दुनिया नहीं है वो दुनिया जहाँ पर,

रहूँगा मैं अपनी एक दुनिया बसा कर।

कोई और है वो तो दुनिया कहीं पर,

होती है खुशियों की खेती जमीं पर,

पेड़ों पे पत्ते, हँसी के हैं लगते,

फूलों के झुरमुट में कॉँटे नहीं हैं।।

मिले ग़र वो दुनिया, मुझे भी बताना।

मुझे भी उसी दुनिया में ही है जाना।।

वो दुनिया, वो घर, वो नगर खोजता था,

वो जन्नत को जाती डगर खोजता था,

उम्र ये बिता दी उसे खोजने में।

उसी दुनिया के सपनों को सोचने में।।

उम्र ये बिता के, है अब जाके जाना-

नहीं है कोई और ऐसा ठिकाना,

कोई और सपनों की दुनिया नहीं है,

वो सपनों की दुनिया यहीं है, यहीं है।

वो सपनों की दुनिया यहीं है, यहीं है।।

Wednesday, December 30, 2009

नये वर्ष का नयापन।

नमस्कार !

मैं, नया वर्ष, अति सहर्ष,

नये वर्ष के अवसर पर,

अपने दोनों कर जोड़ कर,

पिछले वर्ष को, पिछले ही वर्ष में छोड़कर,

नये वर्ष में आपका स्वागत करता हूँ।

आप शायद सोचें-

इस नये वर्ष में नया क्या है?

यूँ भी,

हर वर्ष, हर वर्ष आता है।

और हर वर्ष, हर वर्ष जाता है।

वही बाराह महीने, गर्मी में पसीने,

सर्दी में झुकाम,

और बरसात में सड़कों पर लंवे-लंबे जाम।

हम्म, बात तो सही है।

देखें, तो हर वर्ष ही वही है।

फिर, इस वर्ष, नये वर्ष में, नया क्या है?

कद और वज़न में, मैं पिछले वर्ष जैसा ही हूँ।

श़क्लो-सूरत मे भी लगभग वैसा ही हूँ।

पर उम्र में, मैं उससे, पूरे एक साल बड़ा हूँ,

और इसीलिये विश्वास से, आपके समक्ष, नतमस्तक खड़ा हूँ।

मैंने दुनिया देखी है, मुझे तजुर्बा भी ज़्यादा है,

और इस तजुर्बे के साथ, मेरा आप सब से वादा है-

कि आप सभी कि जिंदगी को एक नई शुरुआत दूँगा,

एक या दो दिन नहीं, पूरे बरस आपका साथ दूँगा।

और जब वापस जाउँगा,

तो अपने से भी ज्यादा तजुर्बेकार, अपने बड़े भाई से आपको मिलाउँगा।

और, भाई बताना मेरा फर्ज है,

आप सब से मेरी छोटी सी अर्ज है-

कि इस वर्ष, ग़र मेरे तजुर्बे का इस्तेमाल करेंगे,

तो देखिये 2010 में आप कैसे- कैसे कमाल करेंगे।

और, जब आप मेरे तजुर्बे का पूरा इस्तेमाल जान जायेंगे,

तब आप हर वर्ष आने वाले, नये वर्ष का नयापन मान जायेंगे।

और इसी आशा के साथ,

मैं, नया वर्ष, अति सहर्ष,

नये वर्ष के अवसर पर,

अपने दोनों कर जोड़ कर,

पिछले वर्ष को, पिछले ही वर्ष में छोड़कर,

नये वर्ष में आपका स्वागत करता हूँ।