Tuesday, June 21, 2011

आज मैं कवि हो गया हूँ।

यूँ कवितायें तो मैं जाने कब से लिखता था,
और लगभग हर कोण से, कवि-कवि ही दिखता था,
पर पिछले हफ्ते,
जब कवियों की तरह मुझे बुलाया गया,
और कवियों के बीच बिठाया गया,
तब मुझे विश्वास हो गया,
कि निश्चय ही, कवि मैं आज हो गया।

पहली दफ़ा, मैंने कवित्व को महसूस किया,
और पहली दफ़ा ही कवित्व को महफूज़ किया।
पहली दफ़ा, कवियों की तरह, कवियों को देखा,
कवियों ही तरह, कवियों को सुना।
बीच-बीच में दाद दी, वाह-वाह की आवाज दी,
ना कम की, ना ज्यादती किसी के साथ की,
हर कवि की तारीफ बराबरी के साथ की।
कवियों की तरह मैंने धीरता से इंतजार किया,
और मौका मिलते ही कविताओं का वार किया।
कवियों की तरह, मैंने कविता सुनाई,
किसी की समझ में आई, आई,
नहीं आई, नहीं आई।
पर कवियों की तरह, मैंने सबसे ताली बजवाई।

और इस तरह, अपनी सुना-सुनू कर,
कवियों की तरह जब मैं जाने लगा,
और अपना मेहनताना उठाने लगा,
तो हाल ही में हासिल मेरे कवित्व को टोककर बोली,
मेरी कविता मुझे रोककर बोली,
कि कविवर,
मामला आज कुछ जमा नहीं,
शब्दों में भाव भी रमा नहीं,
माफ करना यूं लगा,
की पत्ती तो शायद ठीक ही थी,
पर चाय कहीँ पर फीकी थी।

मैंने कविता को बीच में ही काट दिया
और कवि होने के नाते, हकपूर्वक डाट दिया,
कि मामला नहीं भी जमता तो ना जमे,
और भाव ग़र नहीं भी रमता तो ना रमे,
ये जो इतनी भीड़ खड़ी है,
यहाँ भाव की, किसे पड़ी है।
कल तक जब कवितायें मैं लिखता था,
और कहीँ-कहीँ से कवि-कवि सा दिखता था,
तब कविता, ये तुझको सुनने आते थे,
गिनकर, पूरे पाँच कहाँ हो पाते थे।
देख आज ये मुझको सुनने आते हैं,
कुछ भी कह दूँ, ये तालियाँ बजाते हैं।
क्यों कि आज मैं,
सम्मानित, प्रमाणित,
सिद्ध, प्रसिद्ध,
सत्यापित, प्रचारित,
ये सभी हो गया हूँ।
कल तक बस मैं लिखता था,
पर आज मैं कवि हो गया हूँ।