Monday, January 31, 2011

ये शहर।

ये शहर रोता नहीं है,
ये शहर हँसता नहीं।
ये कभी सोता नहीं है,
ये कभी जगता नहीं।

ये शहर छोटा नहीं है,
पूरा भी पर पड़ता नहीं।
कोई यहाँ तन्हा नहीं है,
और साथ भी चलता नहीं।

ये शहर जीता नहीं है,
ये शहर मरता नहीं।
ये जगह कोई शहर ही है,
या ये कोई शहर ही नहीं?

Thursday, January 6, 2011

डिस्क्लेमर।

मैं इंटैलैक्चुअल नहीं हूँ,
और मैं क्या,
मेरा बाप भी इंटैलैक्चुअल नहीं है,
और मेरी माँ तो,
इंटैलैक्चुअलिटी के आस-पास भी नहीं है।
मेरे पूरे सर्किल में ही,
कोई इंटैलैक्चुअल नहीं है,
क्योंकि जो इंटैलैक्चुअल हैं,
वो मेरे सर्किल में नहीं है।

करीब आठ साल पहले,
मैं पहले इंटैलैक्चुअल से मिला था,
उसी से इस शब्द का पता चला था।
कुछ तो मतलब उसने बताया था मुझको,
और कुछ भी समझ में ना आया था मुझको।
मतलब छोड़ो,
आठ साल में मुझे इसकी स्पैलिंग भी ना आई,
कितने ई, कितने एल, और जाने कितने हैं आई।
और आती भी कैसे,
जब मैं इंटैलैक्चुअल ही नहीं हूँ।

मुझे अफ्सोस है,
कि आपको अफ्सोस है,
कि मैं इंटैलैक्चुअल नहीं हूँ।
पर अब होनी को कौन टाल सकता है।
वैसे, मैं खासा अक्लमंद हूँ,
मैट्रिक, इंटर, ग्रेजुएशन सब पढ़े हैं,
कुछ-एक अंग्रेजी के नॉवेल भी पढ़े हैं।
मसाले वाले।
पढ़ने में अच्छे लगे थे,
शायद उनके ऑथर भी,
मेरी ही तरह इंटैलैक्चुअल नहीं थे।

मेरी कवितायें,
जिन्हें मैं शब्दों के अभाव में,
कवितायें कहता हूँ,
कवितायें नहीं हैं।
क्योंकि कवितायें तो इंटैलैक्चुअल्स बनाते हैं,
और इंटैलैक्चुअल्स ही कविताओं को समझ पाते हैं।
मेरे जैसे लोग तो बाजू वाले की ईंट लेते हैं,
बराबर वाले का रोड़ा उठाते हैं,
और कविता के नाम पर,
भानुमती का कुनबा जुटाते हैं।

अगर मेरे बसका होता,
तो मैं इस जोड़-तोड़ को,
कोई नया नाम देता,
और इस बकवास को कविता कहकर,
ना तो कविता को अपमान करता,
और ना आपको हैरान करता।
आप ही कुछ नाम बता दें,
और मेरी कविताओं से,
कविताओं के हो रहे, अपमान से,
कविताओं को बचा दें।

मेरी ये लिखावट,
जो साहित्य की दृष्टि से बकवास है,
समाजिक दृष्टि से कोरा परिहास है,
वर्तमान की दृष्टि से ना तो इसका कोई भविष्य है,
और ना ही इसका कोई इतिहास है,
मेरी दृष्टि से फिर भी, मेरे लिये खास है।

मैं जानता हूँ,
कि मेरे जो विचार हैं,
वो मेरी ही तरह बेकार हैं।
ना तो ये, कभी कोई ऐवार्ड जीत पायेंगे,
और ना ही समाज में,
ये कोई भा क्रांति लायेंगे।
लेकिन फिर भी,
अपने इन विचारों के लिये,
मैं बिल्कुल भी शर्मिंदा नहीं हूँ,
क्यों कि किसी भी प्रकार के,
साहित्यिक उपकार के लिये,
मैं लिखता नहीं हूँ।

मेरी दो-चार लाईनें सुनकर,
दो-चार लोग,
दो-चार मिनट हँस ले,
यही मेरे लिये काफी है,
और इसके अतिरिक्त,
किसी भी महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिये,
मेरी अनुपयुक्तता के लिये,
गुजारिश-ए-माफी है।

मेरी तथाकथित कविता आपको सुननी पड़ी,
इसके लिये मुझे अफ्सोस है।
आपके चेहरे से प्रस्फुटित तेज को भी,
मैं पहचान ना सका,
ये भी मेरा ही दोष है।

किंतु अब मैं आपको आश्वासन दिलाता हूँ,
कि आगे से पूरी सावधानी बरतूँगा,
और कुछ भी सुनाने के पहले,
ये डिस्क्लेमर रख दूँगा,
कि मैं इंटैलैक्चुअल नहीं हूँ,
ये कविता, कविता नहीं है,
मेरे विचार क्रांतिकारी नहीं हैं,
और साहित्य मेरा आभारी नहीं है।
और ये सब जानने के बावजूद,
गर आप शौक फर्मायेंगे,
तो ही आपको अपनी रचना सुनायेंगे।
और भगवान ना करे,
यदि आपको मेरी रचना,
जरा सी भी पसंद आती है,
बहीं खतरे की घंटी बज जाती है।
क्यों कि मैं तो इटैलैक्चुअल हूँ ही नहीं,
पर शायद.
आप भी इंटैलैक्चुअल नहीं हे।
इसलिये,
मेरी इस बात का इकबाल करिये,
कि आगे से आप भी,
ये ही डिस्क्लेमर इस्तेमाल करिये।