Wednesday, December 30, 2009

नये वर्ष का नयापन।

नमस्कार !

मैं, नया वर्ष, अति सहर्ष,

नये वर्ष के अवसर पर,

अपने दोनों कर जोड़ कर,

पिछले वर्ष को, पिछले ही वर्ष में छोड़कर,

नये वर्ष में आपका स्वागत करता हूँ।

आप शायद सोचें-

इस नये वर्ष में नया क्या है?

यूँ भी,

हर वर्ष, हर वर्ष आता है।

और हर वर्ष, हर वर्ष जाता है।

वही बाराह महीने, गर्मी में पसीने,

सर्दी में झुकाम,

और बरसात में सड़कों पर लंवे-लंबे जाम।

हम्म, बात तो सही है।

देखें, तो हर वर्ष ही वही है।

फिर, इस वर्ष, नये वर्ष में, नया क्या है?

कद और वज़न में, मैं पिछले वर्ष जैसा ही हूँ।

श़क्लो-सूरत मे भी लगभग वैसा ही हूँ।

पर उम्र में, मैं उससे, पूरे एक साल बड़ा हूँ,

और इसीलिये विश्वास से, आपके समक्ष, नतमस्तक खड़ा हूँ।

मैंने दुनिया देखी है, मुझे तजुर्बा भी ज़्यादा है,

और इस तजुर्बे के साथ, मेरा आप सब से वादा है-

कि आप सभी कि जिंदगी को एक नई शुरुआत दूँगा,

एक या दो दिन नहीं, पूरे बरस आपका साथ दूँगा।

और जब वापस जाउँगा,

तो अपने से भी ज्यादा तजुर्बेकार, अपने बड़े भाई से आपको मिलाउँगा।

और, भाई बताना मेरा फर्ज है,

आप सब से मेरी छोटी सी अर्ज है-

कि इस वर्ष, ग़र मेरे तजुर्बे का इस्तेमाल करेंगे,

तो देखिये 2010 में आप कैसे- कैसे कमाल करेंगे।

और, जब आप मेरे तजुर्बे का पूरा इस्तेमाल जान जायेंगे,

तब आप हर वर्ष आने वाले, नये वर्ष का नयापन मान जायेंगे।

और इसी आशा के साथ,

मैं, नया वर्ष, अति सहर्ष,

नये वर्ष के अवसर पर,

अपने दोनों कर जोड़ कर,

पिछले वर्ष को, पिछले ही वर्ष में छोड़कर,

नये वर्ष में आपका स्वागत करता हूँ।

Sunday, December 20, 2009

कवि और कविता।

एक दफा एक जंग छिड़ी,

कि कवि बड़ा के कविता है बड़ी?

कवि तर्क, कविता वितर्क।

बढ़ता जाये दोनों में फर्क।।

माथे पर सिल्वट घनी लिये,

और भवें तीर सी तनी लिये,

कवि बोला कविता मुझसे।

अर्थ, छंद, तरता रस से,

शब्दों के मोती बीन-बीन,

भावों के धागों मे महीन,

एक-एक मोती को डाला है,

और तब कविता की माला है।।

कविता ने ‘हुँ’, हुंकार किया,

और उलट कवि पर वार किया।

कवि से कवि की कविता बोली-

मैं, जनक, जनी तेरी झोली,

तुझसे ही मुझको जान मिली,

पर तुझको भी कब पहचान मिली?

जब-जब कविता मधुशाला है,

तब प्रचलित रचने वाला है।।

श्रोता, एक, वहीं खड़ा ज्ञानी,

बोला, ऐसी सुनकर वाणी-

हे प्रिय कवि! प्यारी कविता!

मेरी भी सुनों, मैं हूँ श्रोता।

कवि है तो कवि की कविता है,

और कविता से, कवि की चरिता है।

पर लाभ कहो क्या यूँ लड़कर,

क्या कवि-कविता से भी बढ़कर,

नहीं कवि-कविता का श्रोता है?

हँसता है, वो ही रोता है।

मैं ही मूरख वो श्रोता हूँ,

कवि में, कविता में खोता हूँ।

जो मै ही ना हूँ महफिल में,

बोलो क्या गुज़रेगी दिल में?

मेरी मानों एक काम करो,

एक दूजे का सम्मान करो।

ना कवि बड़ा, ना कविता ही बड़ी,

है बड़ी, घड़ी वो सबसे बड़ी,

मिल जाती हों जब तीन कड़ी,

कवि हो, कविता हो, श्रोता हो,

तीनों का संगम होता हो।

तब ही महफिल हो, शाम बने।

कवि का, कविता का नाम बने।

और मेरा भी कुछ काम बने।

मैं तो बस एक श्रोता हूँ।

कवि से, कविता से छोटा हूँ।

पर मैं ही हँसता हूँ, रोता हूँ।।

Tuesday, December 15, 2009

क्या और क्यों ?

अभी ये ना पूछो, मैं क्या कर रहा हूँ।

ये भी ना पूछो, मैं क्यों कर रहा हूँ।

अभी तो मुझी को कहाँ कुछ पता है।

अभी तो मैं खुद भी पता कर रहा हूँ,

मैं जो कर रहा हूँ,

वो क्यों कर रहा हूँ ?


तारों के सारों के आगे की दुनिया,

हकीकत से बढ़कर, खयालों की दुनिया।

दुनिया में, उस तक भी सिक्का जमा लूँ,

पता ग़र जो हो तो खुदा खोज डालूँ।

पता ही नहीं है कि क्या खोजता हूँ ।

अभी तो मैं खुद भी पता कर रहा हूँ,

कि जीवन में जीकर के,

क्या कर रहा हूँ ?


तुम्हारे सवालों मे दम तो है काफी,

गुज़ारिश मगर मेरी मुझको हो माफी।

तुम्हारी तरह ही पता मुझको होता,

चैन की नींद से मैं भी तो सोता।

करूँ क्या कि उतना गुणी मैं नहीं हूँ,

तभी तो वहाँ तुम और मैं तो यहीं हूँ।

अभी के लिये तो यही भर कहूँगा,

कि कभी-कुछ कभी-कुछ मैं करता रहूँगा।

जैसे ही ज़रा सा भी अहसास होगा,

सवालों का हल, जब मेरे पास होगा,

सबसे पहले तुम्हीं से कहूँगा,

मैं ये कर रहा हूँ,

इसलिये कर रहा हूँ।

अभी तो मैं खुद भी पता कर रहा हूँ,

मैं क्या कर रहा हूँ ?

मैं क्यों कर रहा हूँ ?

Thursday, November 26, 2009

26/11 for An 8 Year Old

Hello Everyone!

I am Pragati because my name is Pragati. Mom says Pragati means development and progress. She says that I am development and progress of India, so I am Pragati of India.

You know when this Pragati of India, I mean I was 7 years old I used to remember 3 important dates. 15th August because that is our happy Independence day, 26th January because that is our happy republic day and 18th August. 18th August... because that is my happy birthday.

Now Pragati of India, I mean I am 8 years old. Now Mom says that I have to remember one more day, 26th November. But I hate it because first it doesn't have a name and second Mom doesn't even let me use happy before it. I just don't get the point, If we can't use happy before it, then why should we remember it. Now I have the extra burden of remembering one more day in addition to huge syllabus already there. Would these days keep adding as I grow older. Did it happen to you also when you were 8. Does it create any additional burden on you also, this addition of new dates every year. I think I was better when I was 7.

Pragati Gupta
An 8 Year Old Kid

Tuesday, November 24, 2009

सचिन बनाम तेंदुल्कर

इन दिनों एक अलग किस्म की लड़ाई चालू है। सचिन बनाम तेंदुल्कर। कहते हैं कि कबीर के मरने के बाद, हिंदुओं और मुसलमानों ने बड़ी लड़ाई लड़ी। हिंदू उनके शरीर को जलाना चाहते थे और मुसलमान दफनाना। कुछ ऐसा ही आजकल सचिन तेदुंल्कर के साथ भी चल रहा है, फर्क सिर्फ इतना है कि लोग शायद भूल गये हैं कि सचिन तेदुंल्कर अभी भी जिंदा हैं।
इस बार मुद्दा ये है कि लोग साफ तौर पर जानना चाहते हैं कि सचिन, तेंदुल्कर हैं या तेंदुल्कर, सचिन ? कौन बनेगा करोड़पति का गेम चालू है और एक करोड़ रुपये के लिये आखिरी प्रश्न है कि सचिन तेंदुल्कर क्या हैं ?
ऑप्शन ए) सचिन।
ऑप्शन बी) तेदुंल्कर।
उत्तर में केवल यही दो ही ऑप्शन्स हैं और कम्प्यूटर पर बैठे सचिन तेदुंल्कर पूरी तन्मयता से सोच रहे हैं कि वो सचिन हैं या तेंदुल्कर। और वो क्या, आज तो हमारे पूरे देश के सामने अहम मुद्दा ही ये है तभी तो देश के सारे बड़े नेता, तमाम अखबार और छोटे बड़े न्यूज़ चैनल पर एक ही डिस्कशन चालू है कि सचिन – सचिन हें कि तेंदुल्कर- तेंदुल्कर ? और अनगिनत ट्रॉफी जीतने वाले सचिन तेंदुल्कर, खुद एक ट्रॉफी की तरह शोकेस में पड़े पड़े इंतजार कर रहे हैं इस राष्ट्रव्यापी फैसले का।
इस वाकया से हमें हमारी जवानी के दिनों के वो दिन याद पड़ते हैं जब दाढ़ी-मूँछों का रौंआ भर आया होगा और हमने मौहल्ले के सारे लौंडे-लपाटों को इकट्ठा कर के टोली बनाई और मौहल्ले की लड़कियों के माईबाप हो गये। मजाल क्या जो कोई हमारे मौहल्ले की लड़की को आँख उठाकर भी देख ले। हमारे मौहल्ले की लौंडिया है हम छेड़ेंगे और कोई क्यों छेड़े ? लड़कियों के स्वामित्व की इस लड़ाई में जाने कितने मर खप गये पर लड़कियों को तो कभी खबर भी न हुई। जैसे – जैसे दाढ़ी मूँछ का रौंआ घना हुआ, वो लड़ाई तो खत्म हो गयी, अब ये नयी लड़ाई शुरु हुई है। फिक्र इसी बात की है अब ये लड़ाई करने वाले रौंयेदार दाढ़ी-मूँछ के लौंडे नहीं हैं, बल्कि पकी पकाई दाढ़ी-मूँछ वाले आदमी हैं। भगवान जाने ये लड़ाई कब खत्म होगी ?

Sunday, November 15, 2009

The Free Mistakes of Your Life!!!

Dear Chetan Bhagat,

Hi, Hope you are doing fine.

I recently happened to read one of your books with the name “The 3 Mistakes of My Life”. I hope you do remember that you wrote it. Well, actually it won’t be right to say that I happened to read it as I didn’t. I wasn’t travelling any long distance train for which I might need some book to kill my time. Neither, I am any more an MBA student who is ready to read any bullshit just to make sure that he doesn’t have to listen to the Glorified Management Jargons during the stupid lectures given by Who’s Who of the Industry. I am not a retired professional. I am not a tired professional. I am not a rich man’s house wife for whom moving the eyeballs while reading would be a good calorie burner and would therefore had to read on the prescription of some dietician. Incidentally, now that the question has arisen, let me clarify you that I am a male so I can never be a house wife though; I am ready to be a house husband in case any of working lady is interested. Coming back to same point, I am certainly not a patient admitted in the general ward of a government hospital who would any way have to read any book for want of other options. Overall, I am not any of those who might have had happened to read your book. And therefore I would like to correct myself from my earlier statement - “I recently happened to read one of your books….” to the statement- “ I recently read one of your books…… ”. So, when I was going to read it I knew well in advance what I was doing and I did it quite intentionally. I hope it would make you feel a little better.

So, now that you already know that I have read your book and I read it quite knowingly the next logical question, which might be and would be arising in your mind, should be that why, then, did I ever plan to read it. Believe me it’s the same question which most of the people had asked themselves after they had read it. But I didn’t. I hope this would make you feel a little more better (please ignore the grammatical mistake). I would keep making you feel better and better as I progress through this letter. I am not a big fan of yours who would read all the books written by you just because they were written by you, though, I must confess that I have already read all the books written by you but, again, that is not because they were written by you. I also won’t say that the book has been a lesser disappointment to me than it has been to other readers who planned or happened to read it. And I am definitely not saying that I didn’t ask the question “ Why did I ever planned to read this book?”, once I had read it, just to make you feel somewhat more better, which I had promised earlier that I would keep making. I genuinely did not feel the need to ask it to myself. I always knew why I was doing it unlike most of the rest of the things of my life for which I still don’t know why I did whatever I did.

It wasn’t a strategic move in the parlance of a recent graduate from Top Notch MBA institute (it could not have been). To deviate a little, it would be worthwhile to mention that there are other MBA institutes also except IIM A (B, C, L, K, I, S included for that matter) like mine whose students still like to claim to have studied at TOP Notch MBA college though you may beg to differ on it. Coming back, if the market research reports were to be believed then it was not even a good investment. So you might consider me a little entrepreneurial about the fact that I defied all the logics, reports and customer feedbacks to venture into reading your book probably purely on my gut feeling. But, unfortunately, it was not for my gut feeling also.
You might not have given it so much of thought before you wrote it as to why you should write it the way you could be wondering now, to figure out, why on earth did I ever read your book, the way I have sensationalized it. India TV would hire me, I bet, on my terms if the HR ever happens to or plans to read this letter of mine. Don’t worry I won’t sensationalize it any further. So, here comes the reason as to why I read your book. I read your book because I felt it was human. In fact, every human being who ever read this book had read this book because it was human. They might not know that they read it because it was human to read it but it was, trust me on that. I know that animals can’t read but even if animals could read, it would still be only humans who would read this book because it is actually so human to read this book. You could feel better about it though you might be thinking was it actually so human but deep down inside you also know that it is. You always knew that it is and that is the precise reason why you wrote it and that is the only reason why readers read it. They were all humans, how they could not have.

You know how human it is to err but what is even more human is to tell others that they have erred. I swear to God that I have never missed an opportunity throughout my life to tell others their mistakes and there have been occasions when I did not even wait for them to commit a mistake so that I could tell them that they have committed one. I told them in advance that they are going to commit one as and when I foresaw it which I generally do. Being a human I consider it my utmost duty towards humanity and fellow humans to point out their mistakes. If I won’t tell them then who would and if nobody does then the poor soul would keep repeating the same mistake. I think it’s always better to commit different mistakes, every time you have to commit it than to commit the same mistake over and over again. That would be so dumb, dull and boring apart from being a highly non-learning experience. I mean, it’s always the mistakes from which men (and women as well) learn and wise men (and women as well) are those who learn from others’ mistakes. Needless to say, we humans are wisest of all animal and therefore, I feel so human while finding mistakes like I never do with any other thing associated with humanity.

So, when you provided me and us with an opportunity to know the 3 mistakes of your life by reading “The 3 Mistakes of My Life”, how could any human with humanity in his heart, would have refused to read it. That would have been so inhuman. Humans would any given day be ready to shell out any amount of money to know the mistakes done by others what the f…. hell 300 bucks are. The best of the memories I cherish are the memories of wrongs done by others rather than rights done by me. But the funniest part is that you also did not write about the mistakes of your life. You just wrote about the mistakes of somebody else’s life in first person. That is what makes this book is so human. I am sure it must have been equally human for you to write the way it has been for us to read.

Now, before I end this letter, let me give you an honest feedback for you like a human being would always do. Most of the humans whom I came across, who had read this book told me that it was not worth reading but I still did. So in the end, just to make you feel a little better (which I had promised somewhere in the middle that I would keep doing), let me confess before you that this book of yours is yet better than “In The Line Of Fire” by Mr. Parvez Musharraf about which, almost all had thought that his glorified book was not even worth writing. At least nobody felt so about yours. So, you score some points over him. I hope it does make you feel better.

Looking forward to read some more HUMAN stories.

Warm Regards,
VINEET GARG
(Fellow Human)

Saturday, September 5, 2009

फेयरवैल पर कुछ भी!

जब से ये होश संभाला था,
मैंने ख्वाब एक ही पाला था।
दिल की बातें दो चार करे,
मुझसे भी कोई प्यार करे।
जब भी देखी कोई सुकुमारी,
मैंने ये आँख वहीं मारी।
कुछ घबराईं, कुछ शर्माईं,
कुछ पापाजी को लें आईं।
इस इश्क ने यूँ बरबाद किया,
कि गुरुजनों ने याद किया।
वे पूज्य हमारे गुरू हुये,
अब उनके भाषण शुरू हुये।
सपनों की लंका दहन हुई,
अब से हर लड़की बहन हुई।
बस बात यही मन के अंदर,
हर बहन लगे मुझको सुंदर।
कितनी अच्छी ये बहनें हैं,
इतने कम कपड़े पहनें हैं।
धीरे – धीरे हम बड़े हुये,
दोनों पैरों पर खड़े हुये।
किस्मत मैरी (MERI) में ले आई,
जहाँ एक नहीं कन्या पाई।
हर दिशा में ढूंढा बढ़ चढ़ के,
हर तरफ मिले लड़के लड़के।
अब पाप किया तो होना क्या,
अब चार साल तक होना क्या।
लड़कों का भला मैं करता क्या,
मैं यूँहीं आहें भरता क्या।
सबने मुझको, मैने सबको डसा,
हर बंदे में था साँप बसा।
साँपों को अपना गुरू किया,
और कविता लिखना शुरू किया।
क्या मैस हुई, क्या क्लास हुई,
रैंक होल्डरशिप तो खास हुई।
पी.जी.एम. और सी.एम. वाली,
हर चीज़ पे कविता लिख डाली।
जैसे ही दुखी हम कभी हुये,
हम हास्य मंच के कवि हुये।
रैंक होल्डरशिप की चाह नहीं,
पी.जी.एम. की भी परवाह नहीं।
सी.एम. तक मेरे काट लिया,
तीनों वॉर्डन ने बाँट लिया।
धीरे धीरे सब बीत गया,
मेरा धैर्य फिर जीत गया।
और फिर मैंने इतिहास किया,
कि ग्रांड वाइवा भी पास किया।
अब दूर हुई सारी बाधा,
अरी अब तो मिल जा ओ राधा।।

Monday, July 20, 2009

विद्वानों के बीच मतभेद है।

विद्वानों के बीच मतभेद है की विद्वानों के बीच मतभेद क्यों है। अरे भई ये भी कोई बात हुई, विद्वान हैं इसलिये मतभैद हैं, मूर्ख तो हैं नहीं जो किसी भी बात पर आव देखें ना ताव और सहमत हो जायें। दरअसल विद्वान व्यक्ति की तो विद्वता ही इसमें है की वो हर मुद्दे पर पहले आव देखें फिर ताव देखें और फिर अपना ऐसा मत रखें जो बाकी सभी के मतों से भिन्न हो। दुनिया के जितने लोगों से हमारा मत मिलेगा, हम उतने ही बड़े मूर्ख हैं।
लोगों के बीच एकमत्ता की तुलना मूर्खता से करना आपको शायद अटपटा लगे। लगना भी चाहिये। भई, सत्य तो अक्सर अटपटा होता है। ये भी हो सकता है कि मेरी इस बात को मानने के लिये आप तैयार ही ना हों। भई आप भी तो विद्वान हैं, मेरी तरह। लेकिन विद्वान होने के नाते, आपको अपनी बात मनवाना मेरा फर्ज बनता है। और इसके लिये, जैसे कि हर विद्वान के पास होते हैं, मेरे पास भी हैं – तर्क। आपके पास भी होंगे वितर्क, बशर्ते की आप विद्वान हों, जो बेशक आप होंगे ही। हमारे देश में सभी होते हैं। मेरा तर्क, आपका वितर्क। फिर मेरा वितर्क, आपका तर्क। तर्क-वितर्क। इस तरह तर्क-वितर्क से मतभेद, मतभेद बने रहते हैं और विद्वान, विद्वान।
विद्वता यह भी है कि विद्वान अपना तर्क देने से पहले श्रोताओं (यहाँ पाठकों) को यह याद दिला दे कि आगामी तर्क है किस मुद्दे पर। तो जनाब मुद्दा है कि लोगों के बीच मूर्खता को होना उनकी मूर्खता का परिचायक है कि नहीं। बिल्कुल है। मिसाल के तौर पर आप शादी को ही ले लीजिये। शादी यानि विवाह को अक्सर विवाहित लोग अपने जीवन के सबसे मूर्खतापूर्ण फैसलों के रूप में याद करते हैं। और आपने यदि गौर ना किया हो तो आपको गौर करा दूँ की विवाह तभी होता है जब विवाह में लिप्त दोनों पक्ष विवाह को लेकर सहमत हो जायें। सहमती हुई नहीं की विवाह घटित। किंतु इस पूरे संवाद के माध्यम से विवाहित लोगों को मूर्ख कहने का मेरा प्रयोजन कतई नहीं है। कहने की जरूरत ही नहीं है। इतिहास में ऐसे उदाहरण भी हैं जिसमें लोग, विवाहित होने के बावजूद भी विद्वान हुये हैं। बल्कि ज्यादातर मौकों पर तो लोग विद्वान ही विवाहित होने के बाद हुये। अक्सर आपने देखा होगा कि जो पति-पत्नी एक दूसरे से झगड़ते नहीं हैं, लोग उन्हें शक की निगाह से देखते हैं। देखना भी चाहिये। किसी महान कवि ने सच ही कहा है कि
विद्वान विवाहित वो हैं,
जिनकी राय हर मसले पर दो हैं।
भारत सरकार ने इस बात को बखूबी समझा और सुखी परिवार की परिभाषा दे डाली-
हम दो। हमारे दो।।
हाँलाकी कालान्तर में कुछ मूर्खों ने इसका प्रयोजन बच्चों से जोड़ना चाहा परंतु हमारे विद्वान विवाहितों ने इसके असली आशय को जाना और कम से कम बच्चों के लिये इसे कभी नहीं माना जैसा की आप हमारे देश की जनसंख्या को देखकर अंदाजा लगा सकते हैं। आदर्श पत्नी वह है जो सदैव अपने पति के साथ रहे और कभी पति का साथ ना दे। आदर्श पति वह है जो सदैव अपनी पत्नी का साथ दे, पर कभी अपनी पत्नी के साथ ना हो।
खैर चर्चा का विषय विद्वान हैं विवाहित नहीं, अतः मूद्दे से भटकने के लिये मैं मूआफी चाहूँगा। दरअसल मूद्दे से भटकना भी विद्वता की एक निशानी है। मुद्दे पर तो चपड़गँजू बात किया करते हैं। अब मूशर्रफ साहब को ही ले लीजिये। मुशर्रफ साहब जिस मुद्दे की खातिर हिंदोस्ताँ आये वो मुद्दा आज भी वहीं का वहीं है। हाँलाकी उस मुद्दे की एवज में उन्होने दिल्ली में अपना पुश्तैनी मकान भी घूम लिया, अपनी बेगम के साथ ताजमहल की तस्वीर भी खिंचवा ली, और अजमेर शरीफ में बच्चों की सलामती की दुआयें भी माँग लीं। अगर कहीं भूल-चूक में वो गलती से भी मुद्दे पर आ जाते और अल्हा खैर करे, मुद्दा हल हो जाता, तो पाकिस्तान के बाकी हुक्मरान क्या बैठकर झक मारते। भई उन्हें भी तो अपनी बेगमें घुमानी हैं हिंदोस्ताँ में। और फिर हिदोंस्ताँ के हुक्मरानों का क्या।
मुद्दे से भटकने से जहाँ एक ओर मुद्दा हल होने का डर चला जाता है, वहीं दूसरे मूद्दों के खड़े होने की संभावना भी बनी रहती है। और जैसा की पहले भी कहा गया है मुद्दे हैं तो मतभेद हैं और मतभेद हैं तो विद्वान। तो संक्षेप में अगर कहा जाये तो मतभेदों से विद्वान हैं, विद्वानों से मतभेद नहीं।
आप शायद सोच रहे हों की इस बकवास को लिखने के पीछे मेरा उद्देश्य क्या है। विद्वानों का बखान करना की मतभेदों का। आप को अपनी बात के लिये सहमत करना या एक और मुद्दा खड़ा करना। यकीन जानिये इस उद्देश्य को लेकर भी विद्वानों के बीच मतभेद ही है।

Saturday, June 6, 2009

मरीन इंजिनीयर्स निराश क्यों ?

मरीन इंजिनीयर्स निराश क्यों ?

-विनीत गर्ग (5581)

भूमिका:-

सन् 2004 के 20 साल आगे यानी 2024 को सेट-अप है। मैं hopefully शादी-शुदा हूँ, obviously मेरी एक बीवी है और expectedly मेरा एक बेटा है (नाम जो भी हो)। Undoubtedly , मैं दुखी हूँ और ये समझता हूँ कि इसीलिये दुखी हूँ क्योंकि मरीन इंजिनीयर हूँ या इसलिये क्योंकि शादी हो चुकी है। खैर एक दिन प्यार में आकर मैनें अपने बेटे से पूछ लिया कि बेटा तुम क्या करना चाहते हो और उसने मुझे जवाब दिया कि वो मरीन इंजिनीयर बनना चाहता है। बस मेरा दिमाग खराब हो गया वहीं.......

मैं-

अरी भाग्यवान! तुमने मेरे बेटे को ये क्या सिखाया है ?

फूल से बच्चे को ऐसा सपना दिखाया है ?

पत्नी-

अजी, तुम्हारा बेटा भी तुम्हारी ही तरह नालायक है।

और कुछ नहीं, बस ये मरीन इंजिनीयर ही बनने लायक है।।

मैं-

हे भगवान! तूने मेरी जिंदगी में कौन सी ल्यूब ऑइल डाली है!

माँ तो माँ, बेटे की खोपड़ी भी एक दम खाली है।।

रत्ती भर जो शक था वो भी आज साफ हो गया।

तू मेरा ही बेटा है मुझे विश्वास हो गया।।

बेटे इसीलिये, तुमसे हॉरर मुवी देखने को मना करते हैं।

ऐसे सपने देखते हो जिनसे पिताजी तक डरते हैं।।

मेरे राजा, मेरे बेटा, अच्छे बच्चे कहना मानते हैं।

तुम्हारे पिताजी, मरीन इंजिनीयरिंग की एक एक चीज जानते हैं।।

बेटे इस लाइन में बहुत रगड़ाई है।

मेहनत बहुत है, हार्डकोर पढ़ाई है।।

जब 6-6 घंटे तक लगातार ई.डी. बनायेगा,

और बसों में धक्के खाकर, हुगली वर्कशॉप जायेगा,

क्या तू सुबह-सुबह पी.टी. के लिये उठ पायेगा।

और इतने पर भी जब शाम को रोज मार्चिंग जायेगा,

तब तेरे को तेरा बाप याद आयेगा।।

स्टॉकिंग्स नीचे जाते ही सी.एम. कट जायेंगे।

छोटी छोटी बात पर ओ.आई.सी. बैक टाइम लगायेंगे।।

बेटा, तू मुझे देख और कुछ सीख,

शिप पे होता हूँ तो घर की याद आती है।

और घर पे रोलिंग-पिचिंग के बिना नींद नहीं आती है।।

आज मेरी अपनी बीवी मेरा कहना नहीं मानती।

अड़ोसी-पड़ोसियों की बीवियाँ भी मुझे नहीं जानतीं।।

बेटे अगर मेरे चेहरे में तुझे तेरा बाप नज़र आता है,

और उस बाप पे तुझे थोड़ा भी तरस आता है,

तो बेटा मेरी मान, ये सपना छोड़ दे।

अपना स्टीयरिंग गीयर 35 डिग्री पोर्ट साइड मोड़ दे।।

पुत्र-

पिताजी! आप भी कैसी अजीब-अजीब सी बात करते रहते हैं।

जब देखो तब, लोगों को डसते रहते हैं।।

ये जो बार बार आप अपने दुखों की दुहई देते हैं,

और उसमें अपने प्रोफेशन को घसीट लेते हैं,

ये एक मर्द की पहचान नहीं है।

बताओ आज किस प्रोफेशन में दुखी इंसान नहीं है।।

जब से आपको बाप माना है, जिंदगी में सिर्फ इतना जाना है,

जान हथेली पर रखकर खेलता हूँ। आप क्या जानो आपको कैसे झेलता हूँ।।

और सुनिये,

6 घंटे तक ई.डी. तो दो चार ही बनाते हैं।

बाकी तो सिर्फ नेम प्लेट से ही काम चलाते हैं।।

छोटी छोटी बात पर अगर सी.एम. नहीं कटवाऊँगा,

तो क्या एफ.पी.ओ. पर पी.जी.एम. नहीं ले जाऊँगा।।

माना कि लाइफ में थोड़ा पेन है।

पर कम से कम जॉब तो सर्टेन है।।

विद आऊट टैक्स वाइट मनी कमा सकते हैं।

फ्री में विदेश घूम कर आ सकते हैं।।

फालतू में इस प्रोफेशन को क्यों कोसते हैं।

मन में ढूँढने के बजाय बाहर शांती खोजते हैं।।

और आप जो बीवी की बात करते हैं।

तो पत्नी के आगे तो बड़े बड़े पानी भरते हैं।।

अरे पिताजी यही तो एक मात्र ऐसा प्रोफेशन है।

जिसमें कम से कम 6 महीने तो बीवी से एक्सेम्पशन है।।

पिताजी! ये दरअसल मेरे प्यार की परीक्षा है।

ये मेरी नहीं, मेरी गर्लफ्रेंड की इक्छा है।।

वो तो उसके नैन सिर्फ मुझसे लड़े हैं।

वरना मरीन इंजिनीयर बनने को तो जाने कितने खड़े हैं।।

अगर आज पी.टी. और मार्चिंग से घबराऊँगा।

तो आपकी तरह अरेंज्ड मैरिज के चक्कर में फंस जाऊँगा।।

प्यार की तो पहली ही शर्त कुर्बानी है।

तभी तो मैंने मरीन इंजिनीयर बनने की ठानी है।।

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Friday, May 29, 2009

बस वाली लड़की।

बस वाली लड़की।

- विनीत गर्ग

धीरज की आँख खुलीं, तो सामने स्ट्रैटिजिकली टाँगे गये कैलेंडर ने एक परंपरागत पड़ोसी की तरह मौका मिलते ही सच्चाई का ज्ञान करा देने के अंदाज़ में उसे आज की तारीख़ बता दी और बड़ी ही बेरहमी से उन 25 साल, 10 महीने, 12 दिनों का एहसास भी करा दिया जो धीरज ने इस धीरज के साथ बिताये थे कि धीरज का फल मीठा होता है। ठीक 1 महीना पहले कम्पलीट हुये एम.बी.ए. के कम्पलीट होने के 1 महीने के बाद आज 26 अप्रैल, 2009 को भी उसका जीवन उतना ही खाली था जितना एम.बी.ए. में एडमिशन लेते वक्त या उससे पहले के किसी भी पल। बढ़िया सेंस आफ ह्यूमर, ठीक-ठाक शक्ल, औसत कद, अति-औसत वज़न, गेँहुआ रंग, काम चलाऊ बुद्धी और अनावश्यक रूप से अपनी उपस्थिती दर्ज कराने वाली एक बड़ी सी नाक वाले धीरज ने लड़कियों को उनकी उस पसंद के लिये अक्सर कोसा था जिसके अंतर्गत वह लड़कियों को कभी पसंद नहीं आया था। यूँ पसंद वह लड़कों को भी कुछ खास न था पर इसका उसे कुछ अफ्सोस न था।

सच्चाई से मुँह फेरने की खातिर धीरज ने करवट बदली तो बगल की दीवार पर टँगी घड़ी ने उसे उस दिन के दूसरे सच से अवगत करा दिया। 7.30 बज चुके थे और 8.00 बजे की बस पकड़ने के लिये उसके पास सिर्फ आधा घंटा था जो यूँ तो नाकाफी था पर सुबह के कुछ जरूरी कामों को स्किप कर देने का अच्छा बहाना बन सकता था जिनमें धीरज वैसे भी कुछ खास इंट्रैस्टिड नहीं था। मन मारकर उसने बिस्तर छोड़ा, टेढ़ी-मेढ़ी अंगड़ाइयाँ लीं और जैसे-तैसे अपने को बाहर जाने लायक स्थिती में लाने के लिये बाथरूम की ओर चल दिया। बाहर आया तो भाभी पहले ही चाय तैयार कर चुकीं थीं। धीरज ने एक पल घड़ी को देखा, दिमाग में कुछ हिसाब लगाया और चाय पीने बैठ गया। मरीन इंजिनीयरिंग की सो कॉल्ड पैरा-मिलैट्री स्टाइल ट्रेनिंग ने उसे और कुछ भले ही न सिखाया हो पर फटाफट तैयार होना जरूर सिखा दिया था। ऐसे भी, मरीन इंजिनीयरिंग में, इससे ज्यादा सीखने की ज़रूरत भी नहीं होती। धीरज ने उन चारों सालों की पढ़ाई को मन ही मन धन्यवाद दिया जिसके कारण वह आज लेट होने के बाद भी इत्मिनान से बस पकड़ सकता था। और इसी ओवर-कोन्फिडेंस के चलते उसने आराम से तो चाय पी, फैलकर डैली टाइम्स की रंगीनियत में झाँका और भैया के कार से बस स्टैण्ड पर ड्रॉप कर देने के ऑफर को भी सर हिला कर ना कर दिया। इसका उसे बाद में अफ्सोस भी हुआ क्योंकि भैया ने उसके इंकार को सीरियसली ले लिया और दुबारा पूछा ही नहीं। धीरज महाराज भी तैश में आ गये और मन पक्का कर पैदल ही बस स्टैण्ड की तरफ चल पड़े।

बस स्टैण्ड ज्यादा दूर तो नहीं था पर पैदल पहुँचने में कुछ टाइम तो लगता है। धीरज ने फिर से हिसाब लगाया तो मामला अब मार्जिन पर ही था। कदमों में अपने आप ही कुछ तेजी सी आ गई। दूर से ही उसने बस स्टॉप पर खड़ी बस को स्पॉट कर लिया और बस पकड़ने के लिये फुल-ऐहैड में दौड़ लगा दी। भाग कर बस पकड़ने में धीरज ऐक्सपर्ट था ही। हाँलाकि इस बार बस को भाग कर पकड़ने का कुछ खास फायदा उसे नहीं हुआ क्योंकि ट्रैफिक जाम में फंसे होने के कारण बस काफी देर वहीं खड़ी रही। फूले हुये साँस के साथ धीरज अंदर घुसा और घुसते ही पैनी निगाहों से अंदर का फास्ट सा मुआयना किया। सबसे पीछे, खिड़की की सीट पर बैठी लड़की के बराबर में एक सीट खाली थी। लड़की कुछ खास नहीं थी पर लड़की थी जो धीरज के लिये काफी था। यूँ सीटें और भी एक-दो खाली थीं पर धीरज ने, ऑबवियसली, वहीं बैठने का फैसला किया और मौका कहीं मिस ना हो जाये इस डर से तुरंत सीट की ओर लपक लिया। इस लपक-झपक के दौरान हुये हल्के-फुल्के स्पर्श का लड़की ने अपनी नाक मुँह सिकोड़ कर भारी-भरकम जवाब दिया। उत्तर-स्वरूप धीरज ने अपने मासुम चेहरे पर क्षमा याचना भरी मुस्कान बिखेर दी। लड़की ने मायावती की तरह धीरज को देखा और फिर एश्वर्या की तरह अपना मुँह दुसरी तरफ मोड़ लिया। और इस तरह एक बार फिर, लड़की को देखकर जागा धीरज का प्रारंभिक उत्साह हर बार की तरह ठंडा हो चला था।

टिकिट! हाँ जी। टिकिट बोलिये, साहब।” –कंडक्टर उसी की तरफ इशारा कर के पूछ रहा था। अपने उठने से होने वाले किसी भी संभावित कष्ट से लड़की को बचाते हुए धीरज सावधानीपूर्वक उठकर कंडक्टर के पास पहुँचा और 50 का नोट बढ़ाकर बोला- एक बाबूगढ़ का टिकिट देना।

हुम्म....रंग तो साफ है।– धीरज लड़की की ओर देखकर सोच रहा था। जाटनी लगती है। दुपट्टे से सर ढक रखा है। गाँव की होगी। पहली बार अकेले बाहर आई है। इतनी खास तो है नहीं फिर इतना क्यों इतरा रही है ? शक्ल नहीं है आठ आने की और खुद को मिस इंडिया समझती है।

अपनी एम.बी.ए. की डिग्री के बड़प्पन और लड़की के संभावित गँवारपन के तुलनास्वरूप धीरज के होंठो पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कान खेल गई और उसे यह भी ध्यान न रहा कि कंडक्टर कब से उसे ही पुकार रहा था।

साहब…..!” –कंडक्टर ने जोर से पकड़ कर धीरज को हिलाया।

हाँ.....हाँ। -धीरज ने चौंककर कंडक्टर की तरफ देखा।

लड़की घूरने से फुर्सत मिल गयी हो तो बाबूगढ़ का टिकिट और ये बचे हुये 22 रुपये भी ले लो।

कंडक्टर की बात सुन पूरी बस मे ठहाका गूँज गया। खिड़की वाली लड़की ने बिना नज़र हटाये ही एक तीखी मुसकान दी जिसे देख धीरज झेंप गया और टिकिट व पैसे ले चुपचाप अपनी सीट पर आकर बैठ गया। कंडक्टर के सरेआम मज़ाक से धीरज थोड़ा असहज महसूस कर रहा था।

इस दो कौड़ी के कंडक्टर ने पूरी बस के सामने मेरी इज्जत दो कौड़ी कर दी। ये लड़की भी मेरे बारे में जाने क्या सोच रही होगी। गुस्से में लग रही है। गुस्सा होती है तो हो, मेरी बला से। लड़की को बस घूर ही तो रहा था, काई ऐसी-वैसी हरकत तो नहीं की? शक्ल नहीं है धेले भर की और खुद को मिस इंडिया समझ रही है।

लड़की अभी भी खिड़की के बाहर ही देख रही थी। धीरज ने खुद को संभाला, थोड़ी देर इधर-उधर देखने का नाटक किया और फिर अपना ध्यान खिड़की के शीशे में दिख रहे लड़की के प्रतिबिंब पर टिका दिया।

छठी-सातवीं तक पढ़ी होगी। बहुत समझो तो हाईस्कूल। सेकंड डिवीज़न, आर्ट साइड। लड़की सीधी है पर पटाई जाये तो पट सकती है। बैटा धीरज ट्राई तो कर एक बार। मगर कैसे। मेरे फर्स्ट इंप्रैशन की तो इस कंडक्टर के बच्चे ने पहले ही वाट लगा दी। कोई नहीं। हिम्मते मर्दा मददे खुदा। इफ फर्स्ट इंप्रैशन इज़ दी लास्ट इंप्रैशन देन सैकिंड इंप्रैशन इज़ आलसो नथिंग लैस दैन लास्टिंग इंप्रैशन। अबे तू एम.बी.ए. है। बातों बातों में बता दे फिर तो पटेगी ही। पर बात कैसे शुरू करू। हाँ....फोन माँगता हूँ इससे। कह देता हूँ मेरे मोबाइल की बैट्री डिस्चार्ज हो गई है, एक अर्जेंट फोन करना है। लेकिन मना कर दिया तो ? तब की तब देखी जायेगी। एक बार माँग तो सही।

इक्सक्यूज़ मी मिस, कैन आई यूज़ योर फोन प्लीज़ ?

टोन डाऊन धीरज, टोन डाऊन।

इक्सक्यूज़ मी मिस, मे आई यूज़ योर फोन प्लीज़ ?

पर अंग्रेजी, अंग्रेजी समझ में आयेगी इसे। ना हिंदी में बोलना पड़ेगा।

क्षमा करें मिस....मिस की हिंदी क्या होती है – बहिन जी। पागल हो गया है क्या। मिस ही बोल।

क्षमा करें मिस, क्या मैं आपका फोन प्रयोग कर सकता हूँ ?

बक साला। ऐसा लग रहा है जैसे दूरदर्शन पर सात बजे के हिंदी समाचार आ रहे हैं। अबे इतनी शुद्ध हिंदी क्यो बोल रहा है।

सीधा बोल – अपना फोन देना 1 मिनट, एक जरूरी फोन करना है। हाँ ये हुई ना मर्दों वाली बात।

अभी-अभी बहुमत जीती सरकार की तरह फैसले की खुशी धीरज के चेहरे पर आ गई और इस खुशी के साथ जैसे ही अपनी बात कहने के लिये वो पल्टा, उल्टा लड़की ही उससे बोल पड़ी

अपना फोन देना 1 मिनट, एक जरूरी फोन करना है।

ज....जी। - अपने शब्द लड़की के मुँह से सुनकर धीरज चौंक गया।

फोन, मोबाइल फोन। मोबाइल रखते हो ना।

जी। है मेरे पास।

तो दो ना। मेरे फोन की बैट्री खत्म हो गई है। एक जरूरी फोन करना है। जितने का भी कॉल हो

उसका पैसा ले लेना।

नहीं, पैसों की तो कोई बात नहीं है। – लड़की को फोन देता हुआ धीरज बोला।

इसने सुन लिया था क्या ? – नंबर डायल करती हुई लड़की को देखकर धीरज सोचने लगा।

हैलो। हैलो विकास।

भाई होगा – धीरज ने सोचा। सुनने में तो भाई का ही नाम लग रहा है।

तुमने मेरे भाई को फोन किया था क्या।

भाई नहीं है। बायफ्रैंड है क्या ? मुझसे मेरा फोन लेकर अपने बायफ्रैंड को फोन कर रही है। ये क्या किया तूने धीरज। अपने पैरों पर अपना ही फोन मार दिया। ओ लड़की, मेरा फोन वापस कर।

सुनो, ये किसी और का फोन है। तुम मुझे इस नंबर पर वापस फोन करो। ठीक है। - कहकर लड़की ने फोन काट दिया।

तूम्हारे पैसे ना खर्च हों इसलिये इनकमिंग करा रही हूँ। थोड़ा वेट करो। – धीरज को मोबाइल वापस लेने के लिये हाथ बढ़ाते देख लड़की बोली। हिचकिचाते हुये धीरज ने हाथ वापस खींच लिया।

इनतमिंद तला लही हूँ। जैसे मेरा फोन यूज़ करके मुझपे कोई एहसान कर रही हो। ये फोन तो वैसे ही रोमिंग में है। अब तो दुगना खर्चा पड़ेगा और उसमें ये बैठ कर अपने बायफ्रैंड से रोमांस करेगी। धीरज बेटा फोन वापस ले ले, नहीं तो ये तेरा भट्टा बैठा देगी।

तुझे दूल्हा किसे बनाया, भूतनी ...... ” - अभी धीरज सोच ही रहा था कि फोन की सिंगटोन बज उठी।

लड़की गाना सुनकर हल्का सा मुस्कुराई और फिर मेरा है कहकर फोन उठा लिया।

हैलो विकास। या आरती हीयर। तुमने भैया को क्यों फोन किया।

भैय्या को फोन क्यों किया – भैय्या को फोन क्यों किया। क्या गँवारों की तरह एक ही बात घिसे जा रही है। जल्दी से फोन काटो मिस, मेरा बिल बढ़ रहा है। - धीरज एक-एक सैकिंड काउन्ट करते हुए सोचने लगा।

नो, यू लिसिन टू मी। डोन्ट यू डेयर टू कॉनटैक्ट मी अगेन।

हीयर यू आर – लड़की ने फोन काटकर गुस्से में धीरज की तरफ बढ़ा दिया।

ज......जी – गँवार सी दिखने वाली लड़की के मुँह से अंग्रेजी सुनकर धीरज की आँखें आश्चर्य से फट

गईं।

फोन। रिमेंबर, आई टुक द फोन फ्रॉम यू।

यस....यस, आई डू।

रियली ? यू डू ? देन टेक इट बैक। - लड़की झुंझलाहट भरी आवाज़ में बोली।

गुस्से में कहीं फोन ही ना पटक दे सोचकर धीरज ने फोन वापस लिया और चुपचाप सामने देखने लगा। धीरज अब तक थोरोली कनफ्यूज्ड हो चुका था।

देखने में तो गँवार लगती है पर बड़ी फर्राटेदार इंग्लिश बोल रही है। इंडिया शाइनिंग। नोयडा के किसी कॉल सेंटर में काम करती होगी।

कॉल-सेंटर का विचार आते ही, हल्की सी व्यंग्यात्मक मुस्कान अनजाने में ही उसके होंठो पर आ गई।

पैसे कितने हुए तुम्हारे ?” - धीरज की मुस्कारते हुये देख लड़की बोली।

जाने दीजिये।

जाने दूँ। जाने क्यों दूँ ? एहसान करना चाहते हो क्या मुझपर ? धर्मखाता खोल....

दस रूपये। – धीरज ने लड़की को बीच में ही काटते हुए कहा।

बीच में ही बात कटने से लड़की इस बार थोड़ी सी असहज हो गई।

10 रूपये। 10 कैसे हो गये। एक ही मिनट तो बात की थी मैंने आउटगोइंग पर।

जी, दरअसल ये फोन रोमिंग पर है।

तो पहले क्यों नहीं बताया ? मैं किसी और से ले लेती।

जी, सॉरी। अगली बार बता दूँगा। - धीरज ने अपनी गलती मान ली।

अगली बार क्या ? मैं क्या फोन ही करती रहूँगी ? ये लो दस रूपये।

धीरज ने बिना कुछ बोले ही दस रूपये रखने में ही भलाई समझी।

करते क्या हो ?” – लड़की ने बात शुरू की।

बसों मे पी सी ओ चला रखा है मैंने। लड़कियों को फोन लेंड करता हूँ और फिर उनकी झाड़ खाता हूँ। - धीरज सोचने लगा।

बेरोजगार हो क्या ?” – लड़की ने धीरज की चुप्पी का मतलब निकालते हुये पूछा।

धीरज ने एक पल को अपनी MBA की ग्लैमरस डिग्री के बारे में सोचा और फिर हाँ कर दी।

पढ़े-लिखे हो ?”

जी, थोड़ा-बहुत।

थोड़ा या बहुत ?”

थोड़ा। - बहुत सारे MBA में थोड़ी ही तो पढ़ाई की थी धीरज ने।

हुम्म...., देखने में तो शरीफ खानदान के लगते हो।

जी शुक्रिया।

काश! होता भी शरीफ खानदान से ही। - धीरज ने मन ही मन सोचा।

कॉल सेंटर में जॉब करना चाहोगे ?”

मरीन इंजीनियरिंग फ्रॉम जाधवपुर यूनिवर्सिटी, एम.बी.ए. फ्रॉम एन. एम. आई.एम.एस.। अब बस कॉल सेंटर में ही जॉब करना बाकी रह गया है।

पैसे कितने मिल जायेंगे ? ” - धीरज एक पल सोचकर बोला।

अरे! पहले नौकरी तो मिले, पैसे तो बाद में मिलेंगे। अपना पर्सनल रिकमेंडेशन पर तुम्हें लगवा

सकती हूँ, पर काम ठीक से करना होगा।

बस जरा देर के लिये एक बस स्टैण्ड पर रुकी तो दीवार पर लगे प्यासा आशिक के उत्तेजक पोस्टर को देखकर धीरज कुछ असहज हो गया। नज़र पोस्टर से हटाते हुये उसने लड़की के स्वर में हामी भरी तो लड़की को स्थिती समझते देर न लगी।

पोस्टर देखकर शर्मा रहे हो ? ” – लड़की मुस्कुसाते हुये बोली।

जी बस यूँही।

हा हा....., संस्कार तो अच्छे हैं तुम्हारे।

शुक्रिया। - धीरज को अपने संस्कारों के बारे में जानकर खुशी हुई।

शुक्रिया तो अपने माँ-बाप का करो जिन्होनें तुम्हारे अंदर इतने अच्छे संस्कार डाले।

जी आज ही जाकर करता हूँ।

बस अब चल दी थी।

अंग्रेजी बोल लेते हो ना ? ” - लड़की ने खिड़की से बाहर झाँकते हुये पूछा।

जी थोड़ी बहुत।

थोड़ी या ....

थोड़ी ...थोड़ी, कामचलाऊ। – धीरज ने आगे के प्रश्न का अंदाजा लगाते हुये उत्तर दिया।

हुम्म.... अपना इंट्रोडक्शन तैयार करो एक। इंग्लिश में। बढ़िया सा। कॉल सेंटर में क्यों काम करना चाहते हो जैसे क्वैश्चन पूछेंगे वो लोग। फंडे दे देना कुछ। मैं बता दूँगी। बाकी देखने में तो ठीक ही हो। कपड़े थोड़े ढंके पहना करो।

कपड़ों की बात सुनकर धीरज थोड़ा खीझ गया और फ्लोटर के खुले भाग से फटी जुराब से बाहर झाँकते अपने अँगूठे को अंदर खींच लिया।

लेकिन तुम्हें अपने प्रननसियेशन पर वर्क करना होगा। टिपीकल इंडियन प्रननसियेशन है। ये नहीं चलेगा।

जी।

ये जी जी क्या लगा रखा है। क्या मैं तुम्हारी जीजी हूँ ? ”

जी.......जी नहीं।

धीरज की आवाज़ की बेचैनी सुनकर लड़की के होंठो पर हल्की सी मुस्कान आ गई।

ऐनीवे, थैंक्स फॉर दा फोन।

यू आर वेलकम। - कह धीरज ने मोबाइल फोन के साथ छेड़खानी शुरू कर दी। आज पहली बार किसी लड़की के बस में वो आया था।

खिड़की से बाहर झाँकती हुई लड़की को देख धीरज सोचने लगा – जब वी मेट की करीना कपूर टाइप लग रही है। उतनी सुंदर तो नहीं है पर सुंदरता का क्या है, सुंदरता तो देखने वाले की आँखों में होती है। बोलती बहुत है। मुझसे भी ज्यादा। आज पहली बार किसी कनवर्सेशन में सामने वाले ने मुझसे ज्यादा बात की होगी। कुछ ज्यादा ही तेज है। धीरज बेटा यहाँ तेरी दाल गलने से रही। तुझसे तो सीधी-साधी लड़कियाँ भी नहीं पटतीं फिर ये तेरे बस की बात नहीं। लेकिन फिर भी एक ट्राई करने में क्या हर्ज है। नाम पूछ ले। बता दे तो नंबर माँग लेना। नहीं तो तू अपनी गली, मैं अपनी गली। ठीक है नाम पूछता हूँ।

नाम पूछने के लिये जैसे ही धीरज ने बोला कि बस रुक गई।

बाबूगढ़ आ गया है। बस इससे आगे नहीं जायेगी। सारी सवारियाँ यहीं उतर लें।” – कंडक्टर चिल्ला रहा था।

बक साला! इस बाबूगढ़ को भी अभी आना था। हर बार तो दो घंटे लगते हैं, आज डेढ़ घंटे में ही पहुँचा दिया। - धीरज ने बस ड्र्राइवर को कोसा।

कुछ कह रहे थे क्या तुम ? ” - लड़की ने धीरज से पूछा।

न..नहीं...नहीं तो।

तो उतरो, आ तो गया बाबूगढ़। अब क्या यहीँ बैठे रहने का इरादा है ?”

हाँ कहकर धीरज उतरने लगा। बस से उतरकर धीरज ने सामने लगे रब ने बना दी जोड़ी के पोस्टर को देखा और हमेशा की तरह अपनी किस्मत को कोसने लगा कि तभी पीछे से आती एक पतली आवाज़ ने उसका ध्यान तोड़ा। ये वही लड़की थी जो अब रिक्शा मे बैठ चुकी थी और उसे ही बुला रही थी।

धीरज, यही नाम है ना तुम्हारा ? ”

हाँ..!” – धीरज ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा।

तुम्हारे मोबाइल में लिखा था। मेरा नाम आरती है। ये मेरा कार्ड है। इस पर दिये ऐड्रेस पर अपना सी.वी. लेकर मंडे को आ जाना। तुम्हें नौकरी मिल जायेगी।

जी बहुत अच्छा।

आरती। कॉल मी आरती। बाय।

बाय।

आरती के आँखों से ओझल होने तक, धीरज वहीँ खड़ा रिक्शा को जाते देखता रहा। एक बार मन में आया कि भाग कर आरती को रोक ले पर फिर पता नहीं क्या सोचकर उसने मन को रोक लिया। आरती का दिया कार्ड अभी भी उसके हाथ में था। धीरज ने पीठ पर अपना बैग लादा और आरती का दिया कार्ड पढ़ता हुआ अपनी राह चल पड़ा।

Aarti Sharma

Business Development Manager

Ask Your Query India Ltd.

Sector – 5O, Noida.

बिज़निस डवलैपमेंट मैनेजर! क्या बात है ! पर इस कार्ड का क्या करूँ जॉब तो मुझे चाहिये नहीं और नंबर इस पर लिखा नहीं है। कॉल क्या धंतु करूँगा। झूँझल में आकर धीरज कार्ड को फेंकने ही वाला था कि उसका ध्यान गया कि कार्ड के पीछे लाल स्याही मे कुछ लिखा था -

91-9884432216

बस वाली लड़की

धीरज ने एक बार फिर रब ने बना दी जोड़ी के पोस्टर पर नज़र डाली और कार्ड को चूमकर अपनी पॉकेट में रख लिया।

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