Wednesday, December 30, 2009

नये वर्ष का नयापन।

नमस्कार !

मैं, नया वर्ष, अति सहर्ष,

नये वर्ष के अवसर पर,

अपने दोनों कर जोड़ कर,

पिछले वर्ष को, पिछले ही वर्ष में छोड़कर,

नये वर्ष में आपका स्वागत करता हूँ।

आप शायद सोचें-

इस नये वर्ष में नया क्या है?

यूँ भी,

हर वर्ष, हर वर्ष आता है।

और हर वर्ष, हर वर्ष जाता है।

वही बाराह महीने, गर्मी में पसीने,

सर्दी में झुकाम,

और बरसात में सड़कों पर लंवे-लंबे जाम।

हम्म, बात तो सही है।

देखें, तो हर वर्ष ही वही है।

फिर, इस वर्ष, नये वर्ष में, नया क्या है?

कद और वज़न में, मैं पिछले वर्ष जैसा ही हूँ।

श़क्लो-सूरत मे भी लगभग वैसा ही हूँ।

पर उम्र में, मैं उससे, पूरे एक साल बड़ा हूँ,

और इसीलिये विश्वास से, आपके समक्ष, नतमस्तक खड़ा हूँ।

मैंने दुनिया देखी है, मुझे तजुर्बा भी ज़्यादा है,

और इस तजुर्बे के साथ, मेरा आप सब से वादा है-

कि आप सभी कि जिंदगी को एक नई शुरुआत दूँगा,

एक या दो दिन नहीं, पूरे बरस आपका साथ दूँगा।

और जब वापस जाउँगा,

तो अपने से भी ज्यादा तजुर्बेकार, अपने बड़े भाई से आपको मिलाउँगा।

और, भाई बताना मेरा फर्ज है,

आप सब से मेरी छोटी सी अर्ज है-

कि इस वर्ष, ग़र मेरे तजुर्बे का इस्तेमाल करेंगे,

तो देखिये 2010 में आप कैसे- कैसे कमाल करेंगे।

और, जब आप मेरे तजुर्बे का पूरा इस्तेमाल जान जायेंगे,

तब आप हर वर्ष आने वाले, नये वर्ष का नयापन मान जायेंगे।

और इसी आशा के साथ,

मैं, नया वर्ष, अति सहर्ष,

नये वर्ष के अवसर पर,

अपने दोनों कर जोड़ कर,

पिछले वर्ष को, पिछले ही वर्ष में छोड़कर,

नये वर्ष में आपका स्वागत करता हूँ।

Sunday, December 20, 2009

कवि और कविता।

एक दफा एक जंग छिड़ी,

कि कवि बड़ा के कविता है बड़ी?

कवि तर्क, कविता वितर्क।

बढ़ता जाये दोनों में फर्क।।

माथे पर सिल्वट घनी लिये,

और भवें तीर सी तनी लिये,

कवि बोला कविता मुझसे।

अर्थ, छंद, तरता रस से,

शब्दों के मोती बीन-बीन,

भावों के धागों मे महीन,

एक-एक मोती को डाला है,

और तब कविता की माला है।।

कविता ने ‘हुँ’, हुंकार किया,

और उलट कवि पर वार किया।

कवि से कवि की कविता बोली-

मैं, जनक, जनी तेरी झोली,

तुझसे ही मुझको जान मिली,

पर तुझको भी कब पहचान मिली?

जब-जब कविता मधुशाला है,

तब प्रचलित रचने वाला है।।

श्रोता, एक, वहीं खड़ा ज्ञानी,

बोला, ऐसी सुनकर वाणी-

हे प्रिय कवि! प्यारी कविता!

मेरी भी सुनों, मैं हूँ श्रोता।

कवि है तो कवि की कविता है,

और कविता से, कवि की चरिता है।

पर लाभ कहो क्या यूँ लड़कर,

क्या कवि-कविता से भी बढ़कर,

नहीं कवि-कविता का श्रोता है?

हँसता है, वो ही रोता है।

मैं ही मूरख वो श्रोता हूँ,

कवि में, कविता में खोता हूँ।

जो मै ही ना हूँ महफिल में,

बोलो क्या गुज़रेगी दिल में?

मेरी मानों एक काम करो,

एक दूजे का सम्मान करो।

ना कवि बड़ा, ना कविता ही बड़ी,

है बड़ी, घड़ी वो सबसे बड़ी,

मिल जाती हों जब तीन कड़ी,

कवि हो, कविता हो, श्रोता हो,

तीनों का संगम होता हो।

तब ही महफिल हो, शाम बने।

कवि का, कविता का नाम बने।

और मेरा भी कुछ काम बने।

मैं तो बस एक श्रोता हूँ।

कवि से, कविता से छोटा हूँ।

पर मैं ही हँसता हूँ, रोता हूँ।।

Tuesday, December 15, 2009

क्या और क्यों ?

अभी ये ना पूछो, मैं क्या कर रहा हूँ।

ये भी ना पूछो, मैं क्यों कर रहा हूँ।

अभी तो मुझी को कहाँ कुछ पता है।

अभी तो मैं खुद भी पता कर रहा हूँ,

मैं जो कर रहा हूँ,

वो क्यों कर रहा हूँ ?


तारों के सारों के आगे की दुनिया,

हकीकत से बढ़कर, खयालों की दुनिया।

दुनिया में, उस तक भी सिक्का जमा लूँ,

पता ग़र जो हो तो खुदा खोज डालूँ।

पता ही नहीं है कि क्या खोजता हूँ ।

अभी तो मैं खुद भी पता कर रहा हूँ,

कि जीवन में जीकर के,

क्या कर रहा हूँ ?


तुम्हारे सवालों मे दम तो है काफी,

गुज़ारिश मगर मेरी मुझको हो माफी।

तुम्हारी तरह ही पता मुझको होता,

चैन की नींद से मैं भी तो सोता।

करूँ क्या कि उतना गुणी मैं नहीं हूँ,

तभी तो वहाँ तुम और मैं तो यहीं हूँ।

अभी के लिये तो यही भर कहूँगा,

कि कभी-कुछ कभी-कुछ मैं करता रहूँगा।

जैसे ही ज़रा सा भी अहसास होगा,

सवालों का हल, जब मेरे पास होगा,

सबसे पहले तुम्हीं से कहूँगा,

मैं ये कर रहा हूँ,

इसलिये कर रहा हूँ।

अभी तो मैं खुद भी पता कर रहा हूँ,

मैं क्या कर रहा हूँ ?

मैं क्यों कर रहा हूँ ?