Tuesday, November 22, 2011

मुंबई के मेंढक।

मेंढकों में होड़ हो गई,
कि मुंबई किसके बाप की है।
दोमुहेँ केंचुओं ने अपने-अपने मेंढक चुने,
और बोले,
हुजूर आपकी है।
हुजूर आपकी है।

फैसला फिर अटक गया।
मुंबई का बाप पता चलते-चलते,
बीच में ही लटक गया।
मेंडकों का दिमाग सटक गया।

मक्खियाँ भिनभिनाईं
कि हुजूर
इंसानों में जब भी,
इस तरह का विवाद हुआ है,
बापों का फैसला,
माँओं से पूछने के बाद हुआ है।

ततैये तमतमा उठे,
और उड़-उड़कर झाँकते हुए बोले,
कि हुजूर...
इंसानों को तो हम बड़ा पीछे छोड़ आये हैं
उतना पीछे जाने में,
और माँ का पता लगाने में,
तो बड़ा वक्त बीत जायेगा,
तब तक तो कोई और रेस जीत जायेगा।

इस पर,
घोंघे ने हिलने का कष्ट किया,
और अपना पक्ष स्पष्ट किया,
हुजूर....
हुकुम करें,
घोंघे पूरा मुंबई रोक देंगे,
कोई हिला, वहीँ ठोक देंगे।

बात मेंढकों के जम गई,
मुंबई घोंघे की तरह, थम गई,
मेंढक फुदक-फुदक कर टरटराये,
मुंबई किसके बाप की है।
मुंबई किसके बाप की है
दोमुहेँ केंचुओं ने अपने-अपने मेंढक चुने,
और बोले,
हुजूर आपकी है।
हुजूर आपकी है।

Monday, November 14, 2011

समझौता।

हमारा समझौता हो गया है,
ना मैं उसकी तारीफ करता हूँ,
ना वो मेरी।
किसी ने किसी से कुछ नहीं कहा।
बिन कहे ही हम समझ गये कि,
हमारा समझौता हो गया है।

पहले उसने लिखना शुरू किया था,
और मैंने तारीफ करना।
फिर उसकी देखा-देखी,
मैंने लिखना शुरू कर दिया,
और मेरी देखा-देखी,
उसने तारीफ करना।

हम दोनों अच्छा लिखते थे।
फिर एक दिन मुझे लगा,
कि मैं ज्यादा अच्छा लिखता हूँ,
और उसे लगा वो।
उसे लगा,
वो ज्यादा तारीफ का हकदार है,
और मुझे लगा मैं।

बस उसी दिन से,
हमारा समझौता हो गया है,
ना मैं उसकी तारीफ करता हूँ,
ना वो मेरी।

Monday, October 31, 2011

एक और मुनादी।

सुनो – सुनो – सुनो
सुनो – सुनो – सुनो
सर्वसाधारण को सूचित किया जाता है,
और प्रशासन की प्राथमिकताओं से,
परीचित किया जाता है
कि गरीबी हटा दी जायेगी,
जनसंख्या जल्द से जल्द घटा दी जायेगी,
बिजली-पानी की किल्लत दूर होगी,
भुखमरी खुद हमें छोड़ने को मजबूर होगी।
खेत-खलिहान खड़े होकर लहलहायेंगे,
और कऊए चिड़ियों की तरह चहचहायेंगे।

प्रशासन को हर्ष है,
कि अभी आजादी का मात्र पैंसठवा ही वर्ष है,
और प्रशासन की पचहत्तरवीं पंचवर्षीय योजना का,
पन्द्रहवाँ प्रारूप पहले ही तैयार है,
बस योजना परिषद के प्रधान पदाधिकारियों से,
प्रस्ताव पारित होने का इंतजार है।
परिकल्पना के परे के परीलोक का वो प्यारा सपना,
अब पूरा होने वाला है
जिसमें जालसाज़ को जेल,
और सच्चे का बोलबाला है।

प्रशासन जानता है,
जनता ने इंतजार किया है।
प्रशासन मानता है,
भरोसा बार-बार किया है।
प्रशासन शुक्रगुज़ार है।
प्रशासन आश्वस्त करता है,
कि भले कितना भी लंबा समर होगा,
पर प्रजातंत्र का अपना सुंदर सपना,
एक दिन ज़रूर अमर होगा।

प्रशासन समझता है,
प्रजातंत्र में प्रतिरोध व प्रदर्शन,
बुनियादी हक है, ज़रूरी है,
परंतु प्रशासन की अपनी,
प्रशासनिक मजबूरी है।
फिर भी प्रशासन प्रजा को,
प्रतिरोध प्रदर्शन का हक प्रदान करता है,
किंतु कानून व्यवस्था की खातिर,
प्रदर्शकों को सावधान करता है,
कि प्रदर्शन के लिये कम-स-कम,
छः माह पूर्व परमिट लेना होगा।
और प्रार्थना-पत्र में प्रदर्शन के कारणो का लिखित ब्यौरा
संलग्न प्रमाण सहित देना होगा।
प्रशासन प्रार्थना-पत्र पर विचार करेगी,
उपयुक्त कारणों पर प्रदर्शन का आवेदन-पत्र
अवश्य स्वीकार करेगी।

प्रदर्शन में भूखे रहने पर सख्त मनाही होगी,
जलसों और जुलूसों पर कानूनन कार्यवाही होगी,
मशालों के प्रयोग पर पर्यावरण विभाग की पाबंदी होगी,
महज़ महकने वाली मोमबत्तियों पर प्रशासन की रज़ामंदी होगी।
प्रशासनिक क्षेत्र की प्रशासनिक सीमा में,
पाँच से अधिक प्रदर्शकों का समूह नहीं बना सकते हैं।
पारित पद्धति के अंतर्गत,
प्रदर्शनकारी सिर्फ तालियाँ बजा सकते हैं।
ध्यान रहे, ध्वनि तरंगो का माप पचास डैसीबेल से कम होना चाहिये,
प्रदर्शन पौने आठ बजे शुरू होकर पौने नौ से पहले खतम होना चाहिये।
प्रशासनिक पदाधिकारी भी इंसान है, नौ बजे के पश्चात वो सोता है,
शोर-शराबे से, उसके पारीवारिक जीवन में खलल होता है।
यदि प्रदर्शन इसके बाद, एक पल भी चलाया जायेगा,
तो प्रायोजकों पर, पाँच सौ रूपये प्रति पल प्रति प्रदर्शनकारी चार्ज लगाया जायेगा।

प्रशासन चाहता है,
कि प्रदर्शन में समाज के सभी वर्गों की भागीदारी हो,
प्रदर्शकों में पन्द्रह प्रतिशत अनुसूचित जाती, साढ़े सात जनजाती,
सत्त्ताईस में अन्य पिछड़े और तैंतीस प्रतिशत में अबला नारी हो।
इसके अतिरिक्त प्रस्तावित प्रतिरोध प्रदर्शन में,
प्रत्येक सम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व होना चाहिये,
क्योंकि एक धर्मनिर्पेक्ष शासन प्रणाली में,
प्रदर्शन भी तो धर्मनिर्पेक्ष होना चाहिये।
प्रदर्शन के लिये प्रस्तावित पुलिस सुरक्षा का,
पूरा खर्चा प्रदर्शकों को खुद सहन करना होगा।
यदि शाँती व्यवस्था बिगड़ी,
तो पाँच लाख रूपये का अतिरिक्त आर्थिक दंड वहन करना होगा।
प्रदर्शन से प्राप्त आमदनी और खर्चे की कर-अधिकारियों द्वारा जाँच होगी,
उद्घाटित प्रायोजकों के व्यक्तिगत मामलों पर सार्वजनिक रूप से पूछताछ होगी।
यदि प्रायोजकों की छवि पूरी तरह से क्लीन होगी,
केवल तभी प्रदर्शन के लिये प्रशासन की सिग्नल ग्रीन होगी चाहिये।

प्रदर्शन कब, कहाँ और कैसे करना है,
ये प्रशासन बतायेगा,
तय राशी के अदायगी पर,
प्रदर्शन के लिये प्रमुख सुविधायें भी,
प्रशासन मुहैय्या करायेगा।
किंतु प्रदर्शन में प्रशासन के विरूद्ध,
कोई नारा नहीं होगा।
प्रशासनिक पदाधिकारी की कार्यप्रणाली पर भी प्रश्न,
गवारा नहीं होगा।

प्रशासन जानता है,
जनता साथ देगी,
प्रशासन के हाथ में,
हमेशा की तरह अपना हाथ देगी।
प्रशासन जनता की,
समस्त समस्याओं के समाधान हेतु तत्पर है,
और कुछ को तो बिल्कुल,
सुलझा देने की हद पर है।
प्रशासन का... अपना एक संविधान है,
जिसमें... प्रत्येक प्रश्न को सुलझाने का प्रावधान है।
परंतु.. प्रशासनिक प्रणाली में,
कुछ वक्त लगता है।
और इसीलिये प्रशासन जनता से,
ये उम्मीद रखता है,
प्रशासनिक मामलों में,
जनता सब्र करे।
और कुछ नहीं तो प्रशासन की प्रतिबद्धता,
पर ही फक्र करे।

प्रशासन, पहले से धन्यवाद प्रेषित करता है।
और मुनादी का अनुपालन अपेक्षित करता है।
आज्ञा से-
प्रशासन,
प्रजा की सेवा में तत्पर।

Thursday, September 8, 2011

एक्शन रीप्ले।

कुत्ते भौंकते रहे,
गधे रेंकते रहे,
हम घरों में बैठकर,
हाथ सेंकते रहे।

बम कहीं कोई फट गया,
घर कहीं कुछ ढह गये,
तमाशाई बस खड़े,
देखते ही रह गये।

कुछ तो बस घायल हुये,
कुछ वहीँ पे मर गये,
करने वाले आये भी,
और काम अपना कर गये।

पुलिस की आहट हुई,
ज़िंदे सारे डर गये,
मुर्दे और करते भी क्या,
वहीँ पर पसर गये।

लाशें सब छाँटी गईं,
शिनाख्त हुई, बाँटी गईं।
ज़िंदे खुद होकर खड़े,
पैबंद टाँक, चल पड़े।

लोगों ने हिसाब कर,
ज़िंदे अपने गिन लिये,
जिनके जो भी मर गये,
कीमत लगा निकल लिये।

हलक की तोपें चलीं
उंगलियाँ भी तन गईं,
हर तरफ हरकत हुईं,
कमैटियाँ कुछ बन गईं।

कानफाड़ू शोर से,
शाँती के वादे हुये,
घोषणायें अनगिनत,
पर सब के सब आधे हुये।

किसी ने कविता कही,
कुछ बहस कर चल दिये,
दो-चार की कर धर-पकड़,
पुलिस ने हाथ मल दिये।

चीख कर बैठे गले,
फिर खड़े जब हो गये,
रीप्ले का बटन दबा,
रिवाइन्ड सारे हो गये।

बम कहीं कोई फिर फटा,
घर कहीं फिर ढह गये,
तमाशाई अब भी बस,
देखते ही रह गये।

कुत्ते भौंकते रहे,
गधे रेंकते रहे,
हम घरों में बैठकर,
हाथ सेंकते रहे।

Tuesday, August 16, 2011

भूख-हड़ताल।

भूख-हड़ताल पर बैठा एक व्यक्ति जब भूख से मर गया,
और सीना ठोककर, अपना जीवन देश के नाम कर गया,
तो इसकी सूचना.......
जब सूचना मंत्रालय के बहरे कानों तक पहुँच गई,
और गृह-मंत्रालय में भी गृहयुद्ध की आशंका मच गई,
तब मौन-मगन प्रधानमंत्री ने अंततः अपनी चुप्पी तोड़ी,
और भूखे व्यक्ति की भूख पर जाँच कमैटी बना छोड़ी।

मरने वाले ने क्यों-कर भूख-हड़ताल की,
जाँच कमैटी ने इसकी पूरी पड़ताल की,
कान में ऊन डालकर, कानून चोदा गया,
मरने वाले का पूरा पास्ट खोदा गया,
दो-चार महीनों में जब फाईल, अच्छी-खासी भारी हो गई,
तो जाँच कमैटी की रिपोर्ट जारी हो गई।

ये सच है कि
भूख से संबद्ध व्यक्ति का स्वास्थ्य बिगड़ गया था,
और पोषण के अभाव में वह मृत्यु की भेंट चढ़ गया था,
किंतु ये सरासर बकवास है,
कि भूख का कारण, देश की खातिर उपवास है।
मरने वाला तो वैसे भी भूखा था,
क्योंकि देश में तो दस साल से सूखा था।
वो तो चाहकर भी क्या ही खाता,
आज नहीं तो कल तो मर ही जाता।
वो जानता था कि दो चार दिनों जीवन यूँही छूट रहा था,
तभी तो मौका ताड़, देशभक्ति का माईलेज लूट रहा था।

हमारी हिदायत है कि
ऐसे मौका-परस्त इंसान पर कानूनन कार्यवाही की जाये,
और मरे हुये व्यक्ति को मरणोपरांत सख्त से सख्त सजा दी जाये,
ताकि फिर कोई भूखा ऐसे काम को अंजाम ना दे,
अपनी संवैधानिक मृत्यु को असंवैधानिक हड़ताल का नाम ना दे।

जनता जान ले कि देश का कानून भूखों के साथ है,
क्योंकि पूरा का पूरा प्रशासन ही भूखों के हाथ है।
हम भी तो भूखे हैं, कब से इस देश को खा रहे हैं,
फिर भी तो इसे ठीक ही ठाक चला रहे हैं,
गर आप अभी से हिम्मत हार जायेंगे,
तो गाँधी-सुभाष के इस देश को भूखा ही मार जायेंगे।

हमारी मानिये,
खुद भी खाईये और हमें भी खाने दीजिये,
सबका पेट भर जाने दीजिये,
क्योंकि जिस रोज सबका पेट भर जायेगा,
भ्रष्टाचार का भूत तो अपने आप ही मर जायेगा।

Tuesday, June 21, 2011

आज मैं कवि हो गया हूँ।

यूँ कवितायें तो मैं जाने कब से लिखता था,
और लगभग हर कोण से, कवि-कवि ही दिखता था,
पर पिछले हफ्ते,
जब कवियों की तरह मुझे बुलाया गया,
और कवियों के बीच बिठाया गया,
तब मुझे विश्वास हो गया,
कि निश्चय ही, कवि मैं आज हो गया।

पहली दफ़ा, मैंने कवित्व को महसूस किया,
और पहली दफ़ा ही कवित्व को महफूज़ किया।
पहली दफ़ा, कवियों की तरह, कवियों को देखा,
कवियों ही तरह, कवियों को सुना।
बीच-बीच में दाद दी, वाह-वाह की आवाज दी,
ना कम की, ना ज्यादती किसी के साथ की,
हर कवि की तारीफ बराबरी के साथ की।
कवियों की तरह मैंने धीरता से इंतजार किया,
और मौका मिलते ही कविताओं का वार किया।
कवियों की तरह, मैंने कविता सुनाई,
किसी की समझ में आई, आई,
नहीं आई, नहीं आई।
पर कवियों की तरह, मैंने सबसे ताली बजवाई।

और इस तरह, अपनी सुना-सुनू कर,
कवियों की तरह जब मैं जाने लगा,
और अपना मेहनताना उठाने लगा,
तो हाल ही में हासिल मेरे कवित्व को टोककर बोली,
मेरी कविता मुझे रोककर बोली,
कि कविवर,
मामला आज कुछ जमा नहीं,
शब्दों में भाव भी रमा नहीं,
माफ करना यूं लगा,
की पत्ती तो शायद ठीक ही थी,
पर चाय कहीँ पर फीकी थी।

मैंने कविता को बीच में ही काट दिया
और कवि होने के नाते, हकपूर्वक डाट दिया,
कि मामला नहीं भी जमता तो ना जमे,
और भाव ग़र नहीं भी रमता तो ना रमे,
ये जो इतनी भीड़ खड़ी है,
यहाँ भाव की, किसे पड़ी है।
कल तक जब कवितायें मैं लिखता था,
और कहीँ-कहीँ से कवि-कवि सा दिखता था,
तब कविता, ये तुझको सुनने आते थे,
गिनकर, पूरे पाँच कहाँ हो पाते थे।
देख आज ये मुझको सुनने आते हैं,
कुछ भी कह दूँ, ये तालियाँ बजाते हैं।
क्यों कि आज मैं,
सम्मानित, प्रमाणित,
सिद्ध, प्रसिद्ध,
सत्यापित, प्रचारित,
ये सभी हो गया हूँ।
कल तक बस मैं लिखता था,
पर आज मैं कवि हो गया हूँ।

Monday, April 25, 2011

ये साले... सपने!

काश....., ये सपने ना होते,
या फिर…., ये साले अपने ना होते..।
चलो होते ..., तो इतने, बड़े ना होते,
हरदम,... सर पर चढ़े ना होते।

अब देखो...,
अच्छी खासी नौकरी है,
बढ़िया से बीत रही है,
खूब कमा रहा हूँ,
पी रहा हूँ, खा रहा हूँ,
पैसे भी बचा रहा हूँ,
फिर भी ....
एक ही बात मना रहा हूँ,
कि काश..., ये सपने ना होते,
या फिर..., ये साले अपने ना होते।

ये साले ...सपनें...
रातों को डेढ़ बजे आते हैं,
साढ़े तीन बजे फिर चक्कर लगाते हैं,
और सुबह पाँच बजे,
तो कान में ऐसी फुरफुरी मचाते हैं,
कि मैं कहता हूँ
भैय्या सोने दे,
मैं भी इंसान ही हूँ,
थोड़ी देर तो चैन होने दे।
कहतें हैं, कि बस हो गया,
चद्दर तानी सो गया।
सपने इतने बड़े-बड़े,
पूरे होंगे पड़े-पड़े।

सालों की...हिम्मत देखो,
मेरे सपने..., मेरे सपने में आके, मुझे...,
मेरा ही सपना बता रहे हैं,
मैं नींद में हूँ इसलिये जिंदा हैं,
और मुझे ही उठा रहे हैं।

एक दिन मैं भी आपे से बाहर हो गया,
मैंने दिमाग के हर दरवाजे पे ताले लगा दिये,
और आने-जाने वाले रस्ते पे रखवाले लगा दिये,
कि हर खयाल का नाम पूछना,
क्यों आया है, काम पूछना,
और लौटेगा कैसे, इंतजाम पूछना।
पर क्या ताले,
और क्या रखवाले,
ये साले.... सपने,
चोर नहीं है,....डाकू हैं,
सबके हाथ में बड़े-बड़े चाकू हैं,
सालों ने पूरे दिमाग को हाईजैक कर लिया,
और दिमाग के हर उस हिस्से को हैक कर लिया,
जो मेरे हिसाब से ठीक था,
दुनिया के हिसाब से भी सटीक था,
और अब देखो,
अच्छी खासी नौकरी है, बढ़िया से बीत रही है,
खूब कमा रहा हूँ, पी रहा हूँ, खा रहा हूँ,
फिर भी ये सपने, बड़े-बड़े सपने दिखाते हैं,
और ऐसी-ऐसी चीज करवाते हैं,
कि सब हमें देखके एक ही चीज फरमाते हैं,
कि काश ये सपने ना होते,
या फिर.... ये साले अपने ना होते।

Monday, January 31, 2011

ये शहर।

ये शहर रोता नहीं है,
ये शहर हँसता नहीं।
ये कभी सोता नहीं है,
ये कभी जगता नहीं।

ये शहर छोटा नहीं है,
पूरा भी पर पड़ता नहीं।
कोई यहाँ तन्हा नहीं है,
और साथ भी चलता नहीं।

ये शहर जीता नहीं है,
ये शहर मरता नहीं।
ये जगह कोई शहर ही है,
या ये कोई शहर ही नहीं?

Thursday, January 6, 2011

डिस्क्लेमर।

मैं इंटैलैक्चुअल नहीं हूँ,
और मैं क्या,
मेरा बाप भी इंटैलैक्चुअल नहीं है,
और मेरी माँ तो,
इंटैलैक्चुअलिटी के आस-पास भी नहीं है।
मेरे पूरे सर्किल में ही,
कोई इंटैलैक्चुअल नहीं है,
क्योंकि जो इंटैलैक्चुअल हैं,
वो मेरे सर्किल में नहीं है।

करीब आठ साल पहले,
मैं पहले इंटैलैक्चुअल से मिला था,
उसी से इस शब्द का पता चला था।
कुछ तो मतलब उसने बताया था मुझको,
और कुछ भी समझ में ना आया था मुझको।
मतलब छोड़ो,
आठ साल में मुझे इसकी स्पैलिंग भी ना आई,
कितने ई, कितने एल, और जाने कितने हैं आई।
और आती भी कैसे,
जब मैं इंटैलैक्चुअल ही नहीं हूँ।

मुझे अफ्सोस है,
कि आपको अफ्सोस है,
कि मैं इंटैलैक्चुअल नहीं हूँ।
पर अब होनी को कौन टाल सकता है।
वैसे, मैं खासा अक्लमंद हूँ,
मैट्रिक, इंटर, ग्रेजुएशन सब पढ़े हैं,
कुछ-एक अंग्रेजी के नॉवेल भी पढ़े हैं।
मसाले वाले।
पढ़ने में अच्छे लगे थे,
शायद उनके ऑथर भी,
मेरी ही तरह इंटैलैक्चुअल नहीं थे।

मेरी कवितायें,
जिन्हें मैं शब्दों के अभाव में,
कवितायें कहता हूँ,
कवितायें नहीं हैं।
क्योंकि कवितायें तो इंटैलैक्चुअल्स बनाते हैं,
और इंटैलैक्चुअल्स ही कविताओं को समझ पाते हैं।
मेरे जैसे लोग तो बाजू वाले की ईंट लेते हैं,
बराबर वाले का रोड़ा उठाते हैं,
और कविता के नाम पर,
भानुमती का कुनबा जुटाते हैं।

अगर मेरे बसका होता,
तो मैं इस जोड़-तोड़ को,
कोई नया नाम देता,
और इस बकवास को कविता कहकर,
ना तो कविता को अपमान करता,
और ना आपको हैरान करता।
आप ही कुछ नाम बता दें,
और मेरी कविताओं से,
कविताओं के हो रहे, अपमान से,
कविताओं को बचा दें।

मेरी ये लिखावट,
जो साहित्य की दृष्टि से बकवास है,
समाजिक दृष्टि से कोरा परिहास है,
वर्तमान की दृष्टि से ना तो इसका कोई भविष्य है,
और ना ही इसका कोई इतिहास है,
मेरी दृष्टि से फिर भी, मेरे लिये खास है।

मैं जानता हूँ,
कि मेरे जो विचार हैं,
वो मेरी ही तरह बेकार हैं।
ना तो ये, कभी कोई ऐवार्ड जीत पायेंगे,
और ना ही समाज में,
ये कोई भा क्रांति लायेंगे।
लेकिन फिर भी,
अपने इन विचारों के लिये,
मैं बिल्कुल भी शर्मिंदा नहीं हूँ,
क्यों कि किसी भी प्रकार के,
साहित्यिक उपकार के लिये,
मैं लिखता नहीं हूँ।

मेरी दो-चार लाईनें सुनकर,
दो-चार लोग,
दो-चार मिनट हँस ले,
यही मेरे लिये काफी है,
और इसके अतिरिक्त,
किसी भी महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिये,
मेरी अनुपयुक्तता के लिये,
गुजारिश-ए-माफी है।

मेरी तथाकथित कविता आपको सुननी पड़ी,
इसके लिये मुझे अफ्सोस है।
आपके चेहरे से प्रस्फुटित तेज को भी,
मैं पहचान ना सका,
ये भी मेरा ही दोष है।

किंतु अब मैं आपको आश्वासन दिलाता हूँ,
कि आगे से पूरी सावधानी बरतूँगा,
और कुछ भी सुनाने के पहले,
ये डिस्क्लेमर रख दूँगा,
कि मैं इंटैलैक्चुअल नहीं हूँ,
ये कविता, कविता नहीं है,
मेरे विचार क्रांतिकारी नहीं हैं,
और साहित्य मेरा आभारी नहीं है।
और ये सब जानने के बावजूद,
गर आप शौक फर्मायेंगे,
तो ही आपको अपनी रचना सुनायेंगे।
और भगवान ना करे,
यदि आपको मेरी रचना,
जरा सी भी पसंद आती है,
बहीं खतरे की घंटी बज जाती है।
क्यों कि मैं तो इटैलैक्चुअल हूँ ही नहीं,
पर शायद.
आप भी इंटैलैक्चुअल नहीं हे।
इसलिये,
मेरी इस बात का इकबाल करिये,
कि आगे से आप भी,
ये ही डिस्क्लेमर इस्तेमाल करिये।