Sunday, January 24, 2010
मेरी छवि, मेरी कविता
मेरी छवि, मेरी कविता।
दर्पण में छवि का दरस करूँ,
और दर्प भरी मुस्काती हूँ।
चेहरे पर नाना भाव बना,
हर भाव उसे समझाती हूँ।
छवि की भाव-भंगिमा पर,
हँसती हूँ, उसे हँसाती हूँ।
श्रंगार निराला करती हूँ,
छवि को भी अपनी सजाती हूँ।
छवि पर अपनी ही मोहित हो,
मैं देख-देख इठलाती हूँ।
पिया-रिझावन कौन कठिन,
छवि को अपनी बतलाती हूँ।
छवि का ऐसा रुप सजा,
छवि से ही मैं घबराती हूँ।
छवि ही कहीं जो सौत हुई,
दर्पण से आँख चुराती हूँ।
मुझ सम सुंदर, मेरी छवि से,
जलती हूँ, उसे जलाती हूँ।
मेरी छवि है मेरी कविता,
जिसको पढ़-पढ़ मैं लजाती हूँ।
Friday, January 15, 2010
खुशी नाम की एक चवन्नी।
ढूँढ रहा हूँ एक ऱुपये में,
खुशी नाम की एक चवन्नी।
हिला-डुला कर, उलट-पुलट कर,
कब से इसको ताड़ रहा हूँ।
यूँ तो इसमें चार-चार हैं,
वही चवन्नी हार रहा हूँ।
सोता था सिरहाने पे रख़,
रखता था दिन-रात सहेजे।
एक ही बस वो बहुत बड़ी थी,
छोटे से ख्वाबों को मेरे।
उम्र बढ़ी, फिर ख्वाब बढ़े,
और ख्वाबों के जब भाव बढ़े,
मैंने जाने कहाँ खरच दी,
रिला-मिला बाकी पैसों संग।
अब जाने, कल फिर आने हैं।
आने को, आने फिर आये,
और अब तो पैसे भरे पड़े हैं।
कई नोट तो बहुत बड़े हैं।
दिखती नहीं मगर फिर भी क्यों,
खुशी नाम की वही चवन्नी।
कहते हैं सब लोग यहाँ अब,
चार आनों का मोल नहीं है।
चार आने की क्या कहते हो,
रुपये तक का तोल नहीं है।
तोल-मोल का नाप बिठाकर,
सबकी कीमत आँक चुका हूँ।
नपी-तुली इस दुनिया के संग,
बहुत दूर तक हाँफ चुका हूँ।
अब पैरों में जान नहीं है,
बाकी एक अरमान यही है-
अबकी बार नहीं चूकुँगा,
सीधे मुठ्ठी में भर लूँगा,
भीख में कोई, फिर से जो दे दे,
खुशी नाम की एक चवन्नी।