प्रसंग- ये पंक्तियाँ एक प्रयास है उस लड़की के मन को समझने का जिसकी शादी तय हो चुकी है और बस इंतजार है तो कुछ और दिनों का।
मेरी छवि, मेरी कविता।
दर्पण में छवि का दरस करूँ,
और दर्प भरी मुस्काती हूँ।
चेहरे पर नाना भाव बना,
हर भाव उसे समझाती हूँ।
छवि की भाव-भंगिमा पर,
हँसती हूँ, उसे हँसाती हूँ।
श्रंगार निराला करती हूँ,
छवि को भी अपनी सजाती हूँ।
छवि पर अपनी ही मोहित हो,
मैं देख-देख इठलाती हूँ।
पिया-रिझावन कौन कठिन,
छवि को अपनी बतलाती हूँ।
छवि का ऐसा रुप सजा,
छवि से ही मैं घबराती हूँ।
छवि ही कहीं जो सौत हुई,
दर्पण से आँख चुराती हूँ।
मुझ सम सुंदर, मेरी छवि से,
जलती हूँ, उसे जलाती हूँ।
मेरी छवि है मेरी कविता,
जिसको पढ़-पढ़ मैं लजाती हूँ।
1 comment:
Amazing one...
Post a Comment