Sunday, October 24, 2010

बचपन।

बचपन।

दिन भर के हम हिले हुये से,
खरबूजा कटकर खिले हुये से,
खुद की खुद में डूबे–डूबे,
ताज से भी हम बड़े अजूबे,
बाल खुद ही के नोच रहे थे,
कि ऑफिस से हम लौट रहे थे।

आँखों के घोड़ों को हाँका,
और खिड़की के बाहर जो झाँका,
भरी सड़क से थोड़ी हटकर,
रैलिंग पर ठोड़ी को धरकर,
बचपन सर को खुजा रहा था,
वही पहेली बुझा रहा था।

धूल से जूते धुले हुये थे,
दोनों फीते खुले हुये थे,
कपड़े सारे सने हुये से,
किसी तरह बस बने हुये से,
शायद, बस्ता ज़रा बड़ा था,
लदा अभी भी वहीं पड़ा था।

नाक से थोड़ी नाक-सिकोड़ी,
आँख से थोड़ी आँख-मिचोली,
टाँग से थोड़ी टँगड़ी खेले,
पत्थर की फुटबॉल धकेले,
उछल-उछल कर भाग रहा था,
चाल पुरानी नाप रहा था।

यूँ तो माँ ने पकड़ रखा था,
एक हाथ को जकड़ रखा था,
दाँत को अपने भीँच-भीँच पर,
ताकत सारी खीँच-खीच कर,
जान, फूँक सी, उड़ा रहा था,
हाथ को अपने छुड़ा रहा था।

नज़र मिली तो हँसकर घूरा,
ऊपर से नीचे तक पूरा,
चीज़ अनोखी देखी हो ज्यों,
दिखा, हमें अपनी माँ को यों,
मुँह को अपने बिरा रहा था,
बचपन हमको चिढ़ा रहा था।

हमने अपना ध्यान हटाया,
उसे छोड़ कहीँ और लगाया,
ऑफिस का बड़ा काम था बाकि,
घर में ना काँदा, ना भाजी,
उसका क्या, वो तो बचपन था,
उसका हँसने का सीज़न था।

ह्रदय-हठीला कुछ देर तो भटका,
फिर साला पर वहीं पे अटका,
मुँह टेढ़ा कर, नज़र चुरा कर,
देखा, गर्दन ज़रा घुमाकर,
आँखों में परिहास भरा था,
बचपन अब भी वहीं खड़ा था।

दिन भर की सब थकन सकेरी,
होंठो पर मुस्कान बिखेरी,
व्यंग्य भरी एक तरंग (ध्वनि) को छोड़ा,
हँस ले बेटा, तू भी थोड़ा,
और अभी दिन चार रहेगी,
बचपन की अभी बहार रहेगी।

थोड़ा और बड़ा तो हो ले,
पैरों पर ज़रा खड़ा तो हो ले,
जिम्मेदारी जब आयेगी,
घिग्गी तेरी बँध जायेगी।
हँसी की लाईन, होंठ से हटकर,
माथे की सिल्वट बन जायेगी।
फिर से, हम फिर बात करेंगे,
कैसी बीती रात करेंगे।

सुनकर ऐसी, बात हमारी,
बचपन ने ताली दे मारी,
पेट पकड़ कर हँसते-हँसते,
बोला तुम कुछ नहीं समझते।
इतने बड़े हुये क्या खाकर,
झक मारी थी कॉलिज जाकर ?

ये बचपन है, बचपना नहीं है,
इसकी कोई उमर नहीं है,
बचपन, तेरा बीत गया है,
तू जीवन से खीझ गया है।
मुझे अभी भी प्यार है मुझसे,
कुढ़ता नहीं कभी मैं खुद से।

बुढ्ढे हो, एक दिन मर जायेगा,
फिर भी क्या तू कर पायेगा।
जीवन ही तू जीता है कल में,
जबकि मैं जीता पल-पल में।
इसलिये, जब भी मैं तुझको कभी मिलूँगा,
हँसता हुआ ही कहीं मिलूँगा।

हमने फिर से ध्यान हटाया,
उसे छोड़ कहीँ और लगाया,
ऑफिस का बड़ा काम था बाकि,
घर में ना काँदा, ना भाजी।
फिर थोड़ा सा आगे जाके,
देखा हमने नज़र बचाके
आँखों में परिहास भरा था,
बचपन अब भी वहीं खड़ा था।
मुँह को अपने बिरा रहा था,
बचपन हमको चिढ़ा रहा था।

3 comments:

kapil_great11 said...

Waah ustaad. Kya khoob likhi hai...maja aa gaya :)
Baaki logon ke liye shayad jyada lambi ho gayee hai. Lekin jo aapke tatparya ko samajh payega wo is poem ko padh ke khush ho jayga :)

Keep it up.

Archit said...

Vinit bhai salaa adami kaise bhi mood me ho aapki rachnaye padh kar matlab achha feel karne lagta hai... aapke bade wale fanwa hai hum :)

बसंत आर्य said...

इस कविता के रिदम ने मुझे आकर्षित क्या.बोल कर पढाने में ज्यादा मजा आया. बचपन में हम केदार नाथ सिंह की कविता गा गा कर पढाते थे. वैसा ही मजा आया कुछ. इस कविता के लिए आपको सचमुच बधाई