Saturday, December 11, 2010
तेरा खयाल।
उगलते भी नहीं बनता,
ना बनता है ये सुनते ही,
और कहते भी नहीं बनता।
कहीं तो है,
कि कुछ तो है,
जो गले के बीच में जाकर,
किसी भित्ती से टकराकर,
अटकता है,
खटकता है।
कितना भी हिला लें सर,
मगर बनकर, अचर, ये पर,
ना हिलता है,
ना डुलता है।
ताला है कोई जंगी,
कहाँ ताली से खुलता है।
हम तो तोड़ भी देते,
और इसको छोड़ भी देते,
मगर फौलाद है इतना,
कि कोशिश भी करें कितना।
ये जो खयाल है तेरा,
बनाकर ढीट ये डेरा,
कि बैठा है ये जम के बन,
अमन से जकड़े मेरा मन,
मेरा मौला, मेरा मालिक।
बनाकर मुझको नाबालिग,
घुमाता है, फिराता है,
कि तबला हूँ, मैं क्या कोई?
कि ये तालें बजाता है।
इसकी ताल की ठोकें,
कि कैसे हो, इन्हें रोकें,
ये बजती हैं,
तो घुसती हैं,
कानों के पटल को चीर,
हर हिस्से में चुभती हैं।
ना मरता है,
ना डरता है,
करूँ भी क्या कहो इसका,
कि सब कुछ ये ही करता है।
मैं तो बस थाम लेता हूँ,
कि भरकर जाम लेता हूँ,
कभी खाली नहीं करता,
कि ये ही है, जो पीता है,
मुझे बद्-नाम करता है।
तुम मुझको सुनाते हो,
चरसी हूँ, भगाते हो,
कोई इसको भी कुछ बोले,
कि जरा सा तो उधर हो ले,
ये खाला का समझकर,
घऱ,
यहाँ घर कर के बैठा है,
ना मरता है, ना जीता है।
अब तो मान बैठा हूँ,
कि मैं ये जान बैठा हूँ,
कि मैं तो भुला भी दूँगा,
तिमिर कोने, किसी मन के,
कि इसको सुला भी दूँगा,
मगर ये ना भुलायेगा,
ये मेरे संग जीयेगा,
ये मेरे संग जायेगा।
तुझसे तो कहीँ अच्छा,
ये खयाल है तेरा,
तूने तो कभी मुड़कर,
पीछे भी नहीं देखा,
ये मेरे संग जीता है,
ये मेरे संग मरता है।
Sunday, October 24, 2010
बचपन।
दिन भर के हम हिले हुये से,
खरबूजा कटकर खिले हुये से,
खुद की खुद में डूबे–डूबे,
ताज से भी हम बड़े अजूबे,
बाल खुद ही के नोच रहे थे,
कि ऑफिस से हम लौट रहे थे।
आँखों के घोड़ों को हाँका,
और खिड़की के बाहर जो झाँका,
भरी सड़क से थोड़ी हटकर,
रैलिंग पर ठोड़ी को धरकर,
बचपन सर को खुजा रहा था,
वही पहेली बुझा रहा था।
धूल से जूते धुले हुये थे,
दोनों फीते खुले हुये थे,
कपड़े सारे सने हुये से,
किसी तरह बस बने हुये से,
शायद, बस्ता ज़रा बड़ा था,
लदा अभी भी वहीं पड़ा था।
नाक से थोड़ी नाक-सिकोड़ी,
आँख से थोड़ी आँख-मिचोली,
टाँग से थोड़ी टँगड़ी खेले,
पत्थर की फुटबॉल धकेले,
उछल-उछल कर भाग रहा था,
चाल पुरानी नाप रहा था।
यूँ तो माँ ने पकड़ रखा था,
एक हाथ को जकड़ रखा था,
दाँत को अपने भीँच-भीँच पर,
ताकत सारी खीँच-खीच कर,
जान, फूँक सी, उड़ा रहा था,
हाथ को अपने छुड़ा रहा था।
नज़र मिली तो हँसकर घूरा,
ऊपर से नीचे तक पूरा,
चीज़ अनोखी देखी हो ज्यों,
दिखा, हमें अपनी माँ को यों,
मुँह को अपने बिरा रहा था,
बचपन हमको चिढ़ा रहा था।
हमने अपना ध्यान हटाया,
उसे छोड़ कहीँ और लगाया,
ऑफिस का बड़ा काम था बाकि,
घर में ना काँदा, ना भाजी,
उसका क्या, वो तो बचपन था,
उसका हँसने का सीज़न था।
ह्रदय-हठीला कुछ देर तो भटका,
फिर साला पर वहीं पे अटका,
मुँह टेढ़ा कर, नज़र चुरा कर,
देखा, गर्दन ज़रा घुमाकर,
आँखों में परिहास भरा था,
बचपन अब भी वहीं खड़ा था।
दिन भर की सब थकन सकेरी,
होंठो पर मुस्कान बिखेरी,
व्यंग्य भरी एक तरंग (ध्वनि) को छोड़ा,
हँस ले बेटा, तू भी थोड़ा,
और अभी दिन चार रहेगी,
बचपन की अभी बहार रहेगी।
थोड़ा और बड़ा तो हो ले,
पैरों पर ज़रा खड़ा तो हो ले,
जिम्मेदारी जब आयेगी,
घिग्गी तेरी बँध जायेगी।
हँसी की लाईन, होंठ से हटकर,
माथे की सिल्वट बन जायेगी।
फिर से, हम फिर बात करेंगे,
कैसी बीती रात करेंगे।
सुनकर ऐसी, बात हमारी,
बचपन ने ताली दे मारी,
पेट पकड़ कर हँसते-हँसते,
बोला तुम कुछ नहीं समझते।
इतने बड़े हुये क्या खाकर,
झक मारी थी कॉलिज जाकर ?
ये बचपन है, बचपना नहीं है,
इसकी कोई उमर नहीं है,
बचपन, तेरा बीत गया है,
तू जीवन से खीझ गया है।
मुझे अभी भी प्यार है मुझसे,
कुढ़ता नहीं कभी मैं खुद से।
बुढ्ढे हो, एक दिन मर जायेगा,
फिर भी क्या तू कर पायेगा।
जीवन ही तू जीता है कल में,
जबकि मैं जीता पल-पल में।
इसलिये, जब भी मैं तुझको कभी मिलूँगा,
हँसता हुआ ही कहीं मिलूँगा।
हमने फिर से ध्यान हटाया,
उसे छोड़ कहीँ और लगाया,
ऑफिस का बड़ा काम था बाकि,
घर में ना काँदा, ना भाजी।
फिर थोड़ा सा आगे जाके,
देखा हमने नज़र बचाके
आँखों में परिहास भरा था,
बचपन अब भी वहीं खड़ा था।
मुँह को अपने बिरा रहा था,
बचपन हमको चिढ़ा रहा था।
Wednesday, August 11, 2010
Sunday, August 8, 2010
समझे?
हम समझे-
कि तुम समझे।
और, तुम समझे-
कि हम समझे।
पर हकीकत में,
हकीकत को,
ना तुम समझे,
ना हम समझे।
समझते जो,
हकीकत को,
अगर एक-दूसरे की तो,
समझते-
कि समझने से,
कभी बढ़कर,
समझाना नहीं होता।
समझाकर, समझ अपनी,
हमको,
समझते थे तुम,
कि समझदारी,
से जिम्मेदारी,
अपनी निभाई तो थी।
समझदार, अपनी समझ में,
पर हम भी कम ना थे।
समझाने से,
अपनी समझ को,
इसलिये हम भी ना हटे।
समझाकर तुम्हें,
समझा ये हमने-
कि तुम समझ गये,
और तुम समझे यूँ बैठे थे –
कि शायद, हम समझ गये।
पर हकीकत में,
हकीकत को,
ना तुम समझे,
ना हम समझे।
Saturday, June 5, 2010
चूनौती।
आज साला, फिर से इसको जिंदगी में मात दी।
उठा उंगली ओर मेरी, सोचते तो होंगे ही,
रात दी, फिर रात दी और फिर से साली रात दी।
ये ही था, पहले कभी, मुस्कुराता था बहुत।
मुझसे, मेरी आँख में, आँखें मिलाता था बहुत।
डेढ़ दिन की आँख में सपने लिये था ढाई मन,
पलक तो अब ही खुली, कम हुआ है जब वजन।
तोड़ कर हर आस को, उम्मीद को,
ख्वाहिश को, मेरे ख्वाब को,
तुम वहीं पर बैठकर मुस्कुराते ही रहो,
नाच उंगली पर मुझे, अपनी नचाते भी रहो।
बन तमाशाई, कि बैठे लुत्फ लो इस खेल का,
पर समझ लो, मजा इसमें, मुझको भी अब आने लगा।
होड़ है अब ये, कि देखें जीतता है कौन जो,
तुम सकोगे हँस, या ज्यादा मैं सकूँगा मौन रो?
आजमा लो हर मुसीबत, हर बला, हर तीर को,
कसर कोई छोड़ना भी नहीं तकदीर को।
फिर ना कहना बाद में कि कहीं कोई चूक की,
आज देता हूँ चुनौती जीत की इस भूख की-
“ रात के विस्तार के भी पार तुम विकराल हो,
सूर्य के शत्-गुणित से बढ़कर तपिश में लाल हो,
भूखंड के खंडक भयानक, भयावह भूचाल हो,
या कल्पना कोरी के कल्पित काल के भी काल हो,
आँख में रक्तिम तुम्हारी, आँख अपनी डालकर,
कर्णभेदी स्वर में बोलुँगा मैं छाती फाड़कर,
तुम मुझको नहीं डिगा पाओगे। ”
Saturday, April 24, 2010
ऑर्डर पर कविता।
रुठी पत्नी को प्यार से मनाना हो,
इंडियन आईडल में अपना सिक्का जमाना हो,
या जनाब, बाथरुम के कोने से ही अपना टैलेंट दिखाना हो।
हर मौसम के लिये हर मूड पर नज्म हैं,
हमारे यहाँ बढ़िया कविता ऑर्डर पर उपलब्ध हैं।
पत्थर को हँसाना हो, हँसते को रुलाना हो,
मुर्दे को जगाना हो, जगते को सुलाना हो,
दिल के बड़े से बड़े जख्म को भुलाना हो।
कविता के सब रस हमारे पिटारे में जब्त हैं,
हमारे यहाँ बढ़िया कविता ऑर्डर पर उपलब्ध हैं।
नर्सरी के बच्चों के लिये चार लाईनों की कविता,
भगवान के भक्तों के लिये लम्बी-लम्बी चरिता,
बेमतलब की बातों की तुकबंदी की कविता,
गहरे विचारों की डुबकी की सरिता।
उम्दा भावों के लिये चुनिंदा शब्द हैं,
हमारे यहाँ बढ़िया कविता ऑर्डर पर उपलब्ध हैं।
हठी लड़की पटानी हो, पटी लड़की हटानी हो।
दिल आपका टूट गया हो, अपना कोई छूट गया हो।
प्यार में धोखा हुआ, गम का कोई मौका हुआ।
जिंदगी से हताश क्यों, गुप्त रोगी निराश क्यों।
हमारी लिखी कविता के गारंटीड रिसल्ट्स हैं,
हमारे यहाँ बढ़िया कविता ऑर्डर पर उपलब्ध हैं।
अरे साहब, एक दफा आज्मा कर तो देखिये,
चार पैसे हम पर भी लगा कर देखिये।
ऐसे ही थोड़ी ना ये दुकान जमाई है,
क्रियेटिविटी है, तभी तो उसकी कीमत लगाई है।
कविता की क्वालिटी के रेटवाईज़ स्लैब्स हैं,
हमारे यहाँ बढ़िया कविता ऑर्डर पर उपलब्ध हैं।
क्या कहा, पिछली कविता काम नहीं आई है,
देखें जरा, आपने कहाँ से लिखाई है।
जरा इसकी मैनूफैक्चरिंग डेट तो दिखाईये,
अरे साहब, ये एक्सपायर्ड है, दूसरी लिखाईये।
एक साल पुरानी कविता को लेकर क्यों इतने स्तब्ध हैं,
हमारे यहाँ बढ़िया कविता ऑर्डर पर उपलब्ध हैं।
Saturday, March 6, 2010
तयशुदा।
तय कर – तुझको क्या बनना है।
किससे, कब, क्या बात कहेगा।
कदम-कदम पर कैसे बढ़ेगा।
ये भी तय कर - क्या खायेगा।
ये भी तय कर – कहाँ रहेगा।
जीवन के पल-पल को तय कर,
जीवन के इस सफर को तय कर।
तय की लय को बहुत सुना था।
आशाओं का जाल बुना था।
पहले मैं भी तय करता था।
बड़ी-बड़ी उम्मीद थी मुझको।
लेकिन, तय की उन तहों में फँसकर,
कई बार अब बिखर चुका हूँ।
जब तय है, जो भी ना तय है,
अंत में सब कुछ वही तो होगा।
कुछ तयकर, उम्मीद लगा कर,
बोलो इससे क्या तय होगा ?
अब मैंने भी तय ये किया है,
आगे कुछ भी तय ना करूँगा।
Thursday, February 4, 2010
मैं और कवि एक नहीं हैं।
हाँलाकि दोनों मुझमें ही कहीं है।
मैं एकदम आम इंसान हूँ,
और आधे से ज्यादा समय अपनी जिंदगी से परेशान हूँ।
यूँ वो भी जिंदगी से पस्त है,
पर, जाने क्यों फिर भी वो मस्त है।
वो कभी-कभी आता है,
और किसी किरायेदार की तरह मुझे किनारे कर,
सीधा ऊपर वाले माले पर चढ़ जाता है,
जब तक मन करता है मजे से रहता है,
अजीब-अजीब सी बाते कहता है,
एक-दो दिन खराब कर देता है,
और फिर चुपके से खिसक लेता है।
अभी, पिछले डेढ़ हफ्ते से उसे खोज रहा हूँ,
क्या पता बताया था, सोच रहा हूँ।
कम्वखत, बड़ा मौनमौजी है,
खुद तो अपनी मर्जी से आता है, अपने मन से लिखता है,
पर, ये बंदा जो बिना मर्जी के भी सबको दिखता है,
जो यहाँ-वहाँ मौका देखता है,
और दिख-दिख कर तारीफ लपेटता है,
इसे तो इस नशे की लत पड़ गई है,
अब वो तो आया नहीं है, और मन में अजीब सी हठ चढ़ गई है,
इसलिये दिमाग लगा-लगा कर कुछ बना रहा हूँ,
खुद तो असलियत से वाकिफ हूँ,
लेकिन कवि हूँ कहकर बाकि सबको बना रहा हूँ।
क्योंकि हाँलाकि दोनों मुझमे ही कहीं है,
पर फिर भी मैं और कवि एक नहीं हैं।
Sunday, January 24, 2010
मेरी छवि, मेरी कविता
मेरी छवि, मेरी कविता।
दर्पण में छवि का दरस करूँ,
और दर्प भरी मुस्काती हूँ।
चेहरे पर नाना भाव बना,
हर भाव उसे समझाती हूँ।
छवि की भाव-भंगिमा पर,
हँसती हूँ, उसे हँसाती हूँ।
श्रंगार निराला करती हूँ,
छवि को भी अपनी सजाती हूँ।
छवि पर अपनी ही मोहित हो,
मैं देख-देख इठलाती हूँ।
पिया-रिझावन कौन कठिन,
छवि को अपनी बतलाती हूँ।
छवि का ऐसा रुप सजा,
छवि से ही मैं घबराती हूँ।
छवि ही कहीं जो सौत हुई,
दर्पण से आँख चुराती हूँ।
मुझ सम सुंदर, मेरी छवि से,
जलती हूँ, उसे जलाती हूँ।
मेरी छवि है मेरी कविता,
जिसको पढ़-पढ़ मैं लजाती हूँ।
Friday, January 15, 2010
खुशी नाम की एक चवन्नी।
ढूँढ रहा हूँ एक ऱुपये में,
खुशी नाम की एक चवन्नी।
हिला-डुला कर, उलट-पुलट कर,
कब से इसको ताड़ रहा हूँ।
यूँ तो इसमें चार-चार हैं,
वही चवन्नी हार रहा हूँ।
सोता था सिरहाने पे रख़,
रखता था दिन-रात सहेजे।
एक ही बस वो बहुत बड़ी थी,
छोटे से ख्वाबों को मेरे।
उम्र बढ़ी, फिर ख्वाब बढ़े,
और ख्वाबों के जब भाव बढ़े,
मैंने जाने कहाँ खरच दी,
रिला-मिला बाकी पैसों संग।
अब जाने, कल फिर आने हैं।
आने को, आने फिर आये,
और अब तो पैसे भरे पड़े हैं।
कई नोट तो बहुत बड़े हैं।
दिखती नहीं मगर फिर भी क्यों,
खुशी नाम की वही चवन्नी।
कहते हैं सब लोग यहाँ अब,
चार आनों का मोल नहीं है।
चार आने की क्या कहते हो,
रुपये तक का तोल नहीं है।
तोल-मोल का नाप बिठाकर,
सबकी कीमत आँक चुका हूँ।
नपी-तुली इस दुनिया के संग,
बहुत दूर तक हाँफ चुका हूँ।
अब पैरों में जान नहीं है,
बाकी एक अरमान यही है-
अबकी बार नहीं चूकुँगा,
सीधे मुठ्ठी में भर लूँगा,
भीख में कोई, फिर से जो दे दे,
खुशी नाम की एक चवन्नी।