Saturday, June 5, 2010

चूनौती।

तुम कहीं तो बैठकर देखते होंगे सही,

आज साला, फिर से इसको जिंदगी में मात दी।

उठा उंगली ओर मेरी, सोचते तो होंगे ही,

रात दी, फिर रात दी और फिर से साली रात दी।

ये ही था, पहले कभी, मुस्कुराता था बहुत।

मुझसे, मेरी आँख में, आँखें मिलाता था बहुत।

डेढ़ दिन की आँख में सपने लिये था ढाई मन,

पलक तो अब ही खुली, कम हुआ है जब वजन।

तोड़ कर हर आस को, उम्मीद को,

ख्वाहिश को, मेरे ख्वाब को,

तुम वहीं पर बैठकर मुस्कुराते ही रहो,

नाच उंगली पर मुझे, अपनी नचाते भी रहो।

बन तमाशाई, कि बैठे लुत्फ लो इस खेल का,

पर समझ लो, मजा इसमें, मुझको भी अब आने लगा।

होड़ है अब ये, कि देखें जीतता है कौन जो,

तुम सकोगे हँस, या ज्यादा मैं सकूँगा मौन रो?

आजमा लो हर मुसीबत, हर बला, हर तीर को,

कसर कोई छोड़ना भी नहीं तकदीर को।

फिर ना कहना बाद में कि कहीं कोई चूक की,

आज देता हूँ चुनौती जीत की इस भूख की-

“ रात के विस्तार के भी पार तुम विकराल हो,

सूर्य के शत्-गुणित से बढ़कर तपिश में लाल हो,

भूखंड के खंडक भयानक, भयावह भूचाल हो,

या कल्पना कोरी के कल्पित काल के भी काल हो,

आँख में रक्तिम तुम्हारी, आँख अपनी डालकर,

कर्णभेदी स्वर में बोलुँगा मैं छाती फाड़कर,

तुम मुझको नहीं डिगा पाओगे। ”

3 comments:

Archit said...

Yaar kabhi kabhar aisa bhi likh diya karo ki mai comment karne ko majboor na hua karu. Manana padega bhai.. har nayi kavita pahale se behatar hoti hai.. aur kya hindi/urdu use ki hai dost.. maja a gaya. Ekdum seasoned kavi ho gaye hao tum.. :)

Ro.. said...

Yeh happy ending wali kavita bht sahi hai :D

Jammy said...

Excellent stuff dude...