बादलों का आगे, धुंधलके में छिपकर,
जो दिखती नहीं है, वो मंजिल है मेरी।
मुंबई की लोकल की भीड़ में पिसकर भी,
पिसती नहीं जो वो चाहत है मेरी।
मंजिल की मुझसे दूरी ना देखो,
पैदल हूँ, ये भी मजबूरी ना देखो।
इस जिस्म की डेढ़ पसली ना देखो,
चप्पल की घिसती तली भी ना देखो।
ना परखो, मेरे हुनर की भी नोकें,
ना ताको, हवाओं के रुख के भी झोंके,
उम्र का भी मेरी, गणित ना लगाना,
अपने तजुर्बे पर भी ना जाना..।
पा लूँगा मंजिल, कोई कारण नहीं है,
इतिहास में भी उदाहरण नहीं है।
इतिहास भी पर भविष्य ही जब था,
वो भी कहाँ कम, असंभव से कब था।
हर कसौटी की तुम्हारी हदें तोड़ दूँगा,
परे मैं, वो सारी, वजह छोड़ दूँगा।
जो रोकेंगी मुझको, मेरे रास्ते से,
जो टोकेंगी मुझको, मेरे रास्ते में।
जीतूँगा मैं ही ये लिख लो अभी से,
खिला दूँगा कलियाँ, मैं कली मरुजमीं से।
मुझे बस यकीं है, चाहत पे मेरी,
मैं लड़ता रहूँगा, कितनी हो देरी।
मैं लड़ता रहूँगा, कितनी हो देरी।
2 comments:
होसला देती सुन्दर पंक्तियाँ.
Good lines
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